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________________ तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य रहा है। विद्याधर मुनि भी उनकी इस भावना के अनुकूल सहज व्यवहार प्रकट करते हुए उनके पास आ जाते हैं । मुनियों के दर्शन मात्र से ही पाप नष्ट हो जाते है तथा मनोकामनाएँ पूर्ण होती है। मेघवाहन को भी मुनि के प्रसादस्वरूप पुत्र प्राप्ति का उपाय प्राप्त होता है । इस प्रकार यहाँ धर्मतत्त्वज्ञों (ऋषि-मुनियों) के स्वभाव के नैसर्गिक वर्णन से सहृदय को विशेष आनन्द की प्राप्ति हो रही है अतः यहाँ स्वभावौचित्य है। 170 समरकेतु द्वारा कहा गया यह वाक्य 'सूक्तवादिनि, युक्तवादिनि, युक्तमभिहितम् । किंतु दुष्करमिदं मादृशानाम् 03 स्वाभावौचित्य का उत्तम उदाहरण है। वज्रायुध से सन्धि करने के लिए कुसुमशेखर मलयसुन्दरी का विवाह उससे निश्चित कर देते है । यह देखकर बन्धुसुन्दरी समरकेतु से कहती है कि वह मलयसुन्दरी को रात्रि में ही अपने देश ले जाएं परन्तु समरकेतु कहता है कि 'मेरे सदृश जनों के लिए यह दुष्कर कार्य है।' समरकेतु उच्च कोटि का वीर है तथा वीरों में उसका नाम सम्मान से लिया जाता है। यदि वह रात्रि में मलयसुन्दरी को ले जाता है तो उसे कार माना जाएगा तथा उसका यश कलंकित होगा । पुन: उसका चरित्र भी उच्च कोटि का है अतः यह कार्य नैतिकता के विरुद्ध भी होगा। इस प्रकार यहाँ यह एक वाक्य ही उसके नैसर्गिक स्वभाव को नितरां द्योतित कर रहा है अत: स्वभावौचित्य है। हरिवाहन के दर्शनानन्तर तिलकमञ्जरी की स्वाभाविक क्रियाओं में स्वभावौचित्य का सुन्दर परिपाक हुआ है। तिलकमञ्जरी हरिवाहन को अकस्मात् अपने समक्ष पाकर घबरा जाती है तथा उसके पूछने पर भी कोई उत्तर नहीं देती। तिलकमञ्जरी जिसे जन्म से ही पुरुषों से विद्वेष है, हरिवाहन की मनोहर छवि देखकर उस पर मुग्ध हो जाती है। तब भी वह लज्जावश हरिवाहन के प्रश्नों का उत्तर नहीं देती, केवल प्रेमपूर्ण तिर्यक दृष्टि से उसे देखती हुई वहाँ से चली जाती है। नारी का यही स्वभाव होता है। प्रथम मिलन में वह लज्जावश अपने प्रिय की किसी बात का उत्तर नहीं देती है । यहाँ पर तिलकमञ्जरी की क्रियाओं का अत्यन्त स्वाभाविक व मनोहारी वर्णन किया गया है जो सहृदय - हृदय को विशेष आनन्द 104 103. ति. म., पृ. 326 104. वही, पृ. 248-250
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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