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तिलकमञ्जरी में औचित्य
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समृद्धि को प्राप्त करता है । " शाक्यबुद्धि का यह कथन हरिवाहन के विषय में है । गज ने हरिवाहन का अपहरण करके उसे निर्जन वन में छोड़ दिया है। इसलिए वह दैवयोगवशात् इस दुरावस्था को प्राप्त हुआ है । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है। कि वह पुनः समृद्धि को प्राप्त नहीं करेगा। जिस प्रकार वृक्ष और चन्द्रमा क्षीण होकर पुनः बढ़ने लगते हैं। उसी प्रकार हरिवाहन सदृश कर्मयोगी पुनः समृद्धि को प्राप्त करते हैं क्योंकि सुख और दुःख तो चक्र के अरो के समान ऊपर नीचे होते रहते हैं। अत: हरिवाहन भी अवश्य ही पुनः समृद्धि को प्राप्त करेगा ।
स्वभावौचित्य
स्वभाव का उचित वर्णन ही स्वभावौचित्य है । आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार नैसर्गिक व असाधारण होने के कारण भूषण स्वरूप स्वभावौचित्य से युक्त काव्य उसी प्रकार सुशोभित होता है, जिस प्रकार सहज व असाधारण लावण्य से अंगनाएँ सुशोभित होती हैं।" इसका उदाहरण उन्होंने अपनी रचना मुनिमतमीमांसा से दिया
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विद्याधर मुनि के वर्णन में धर्मतत्त्वज्ञों के स्वाभाविक साधु चरित का अत्यन्त मनोहारी वर्णन किया गया है। विद्याधर मुनि को दक्षिण दिशा के आकाश मार्ग से आते देखकर आश्चर्य व श्रद्धातिरेक से मेघवाहन और मदिरावती अपने आसन छोड़कर खड़े हो जाते हैं। उनकी धार्मिक बुद्धि व ऋषि-मुनियों के प्रति अतिशय आदर भावना देखकर मुनि भी उनके प्रसाद की छत पर उतर आते है । क्योंकि धर्म तत्त्वज्ञों के हृदय सदैव धार्मिक जनों के अनुकूल आचरणभिमुख होते हैं। 2 मुनि को देखकर अपने आसन छोड़कर खड़े हो जाना धार्मिक कार्यों में उनकी रुचि व ऋषिमुनियों के प्रति उनकी श्रद्धा और आदर को अभिव्यक्त कर
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क्षुण्णोऽपि रोहति तरु: क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः ।
इति विमृशन्त: सन्त: संतप्यन्ते न विधुरेषु ।। ति.म., पृ. 402
100. स्वभावौचित्यमाभाति सूक्तीनां चारुभूषणम् ।
अकृत्रिममसामान्यं लावण्यमिव योषिताम् ।। औ. वि. च., का. 33
101. कर्णोत्तालितकुन्तलान्तनिपतत्तोयक्षणासङ्गिना । हारेणेव वृतस्तनी पुलकिता शीतेन सीत्कारिणी।। निर्धौताञ्जनशोणकोणनयना स्नानावसानेऽङ्गना । प्रस्यन्दत्कबरीभरा न कुरुते कस्य स्पृहार्द्रं मनः ।। वही, पृ. 145
102. धार्मिकजनानुवृत्त्यभिमुखानि हि भवन्ति सर्वदा धर्मतत्त्ववेदिनां हृदयानि । ति. म., पृ. 25