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________________ 168 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य समरकेतु का प्रकृत कथन" भी सारसंग्रहौचित्य की दृष्टि से द्रष्टव्य है। उसके अनुसार अनुकूल विधि द्वारा सहायता किए गए साहसी व्यक्ति का नीति विरुद्ध कार्य भी फल देता है। तात्पर्य यह है कि भाग्य भी उन्हीं व्यक्तियों की सहायता करता है, जो साहसी तथा कर्मयोगी होते है तथा अज्ञात मार्गों पर भी दृढ़तापूर्वक लक्ष्य की ओर अग्रसर रहते हैं। भाग्य को फलित करने के लिए कर्म अत्यावश्यक है। यद्यपि समरकेतु यह नहीं जानता कि हस्ती हरिवाहन को लेकर कहाँ गया है, परन्तु यह चिन्तन करके कि न जाने हरिवाहन को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़े तथा मित्र रूप में अपना कर्त्तव्य समझकर, वह साहसपूर्वक उसे खोजने के लिए निकल पड़ता है। भीषण जंगलों व दुर्गम पर्वतों पर वह उसकी खोज करता है तथा अन्ततः उसे पा लेता है। यदि वह अकर्मण्य होकर केवल परिणाम की प्रतीक्षा करता, तो सम्भवतः उसे कुछ प्राप्त नहीं होता और वह हरिवाहन के निष्छल प्रेम का पात्र भी नहीं होता। यह सर्वप्रमाणिक तथ्य है कि साहसी व्यक्ति की भाग्य भी सहायता करता है और प्रचलन विरुद्ध कार्य का भी सम्यक् फल देता है। महाकवि धनपाल ने यहाँ कर्म की प्रधानता बताकर गीता के कर्मयोग” के सिद्धांत को ही सार रूप में प्रतिपादित किया है, अतएव सारसंग्रहौचित्य है। हरिवाहन द्वारा जगत् की अतात्त्विकता के विषय में चिन्तन भी द्रष्टव्य है - अहो विरसता संसार स्थिते:भस्वभावता विभवानाम्। यह संसार अतात्त्विक अर्थात् नश्वरशील है तथा धन सम्पत्तियाँ क्षणभङ्गर है। धनपाल ने इस जगत् की नश्वरशीलता व अवास्तविकता पर विचार कर अद्वैत वेदान्त के 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या' सिद्धांत को ही साररूप में प्रस्तुत किया है। अतः यहाँ सारसंग्रहौचित्य स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। शाक्यबुद्धि नामक मंत्री का प्रकृत्त कथन भी सारसंग्रहौचित्य की दृष्टि से विवेचनीय है। उसके अनुसार कटा हुआ वृक्ष समयानुसार पुनः वृद्धि को प्राप्त करता है, क्षीण चन्द्र पुनः बढ़ने लगता है। उसी प्रकार संकटापन्न व्यक्ति भी पुनः 96. अनुकूलविधिविहितसहायकस्य साहसिकस्य सर्वदा शस्यसम्पदिवानीतिरनीतिरेव फलति। ति.म., पृ. 155 97. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ।। गी. सौ. , 2/47 98. ति. म., पृ. 243
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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