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________________ तिलकमञ्जरी में औचित्य 165 जिसने अपने वीर्य से शत्रुओं का हृदय भी अपने वश में कर लिया। मेघवाहन भी उसके सत्त्व के विषय में सुनकर विस्मित हो जाते हैं और उससे कहते हैं इस जगत में एक तुम ही धन्य हो जिसकी पराजय भी विजय के समान है, आश्चर्यचकित विपक्ष की सभाओं में प्रशंसित होती है। इस वाक्य से समरकेतु के स्वभाविक शौर्य का ज्ञान होता है। अतः यहाँ वाक्यौचित्य है। सत्त्वौचित्य काव्य में सात्त्विक वचनों का उचित निबन्धन ही सत्त्वौचित्य है। आचार्य क्षेमेन्द्र के अनुसार कवि का वर्णनीय व्यक्ति के सत्त्व के अनुरूप वचन उसी प्रकार सहृदय को आह्लादित कर देता है, जिस प्रकार विवेकी पुरुष का विचार संगत उदात्त चरित।” क्षेमेन्द्र ने इसका उदाहरण उनकी अपनी रचना 'चित्रभारत' में से दिया है। इसमें युधिष्ठिर की सत्त्वसम्पन्नता का प्रतिपादन किया गया है। महाकवि धनपाल मेघवाहन की पृथ्वी का भार वहन करने की क्षमता के विषय में कहते हैं जिस पृथ्वी को धारण करने में कच्छपाधिप विमुख हो गए, आदिवराह ने भी मुख को वक्रित कर लिया, शेषनाग की फण रूप भित्तियाँ सहस्र प्रकार से विदीर्ण हो गई, उस पृथ्वी के भार को मेघवाहन खड़ युक्त भुजा के द्वारा अनायास ही धारण करता है। यहाँ पर मेघवाहन का सत्त्वोत्कर्ष दिखाया गया है। मेघवाहन खड़ युक्त भुजा पर पृथ्वी के भार को धारण करता है जिससे यह अभिव्यञ्जित हो रहा है कि इसके राज्य में प्रजा सुखी तथा खुशहाल थी। सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने बाहुबल से नियन्त्रित करने में इसका सत्त्व नितरां द्योतित हो रहा है। अतः यहाँ सत्वौचित्य है। 87. चमत्कारं करोत्येव वचः सत्त्वोचितं कवेः । विचाररुचिरोदारचरितं सुमतेरिव ।। औ. वि. च., का. 31 88. नदीवृन्दोद्दामप्रसरसलिलापूरिततनुः स्फुरत्स्फीतज्वालानिविडवडवाग्निक्षत जलः । न दर्प नो दैत्यं स्पृशति बहुसत्त्वः परिरपामवस्थानां भेदाद्भवति विकृतिनैव महताम् ।। वहीं, पृ.137 89. यस्य धारणे कुर्मपतिनापि पराङ्मुखीभूतमादिवराहेणपि वक्रितं मुखमुरगराजस्यापि सहस्रधा भिन्नाः फणाभित्तयः, तमपि भुवनभारमनायासेनैव धृतासिना भुजेन यो बभार । ति. म., पृ. 15
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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