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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य दु:सह हो गया है और वह जलसमाधि लेने का निश्चय कर लेती है। यहाँ पर करुण रस की अजस्र धारा प्रवाहित हो रही है, जो सहृदयहृदयावर्जक है। अतएव यहाँ करुण रसौचित्य है।
वज्रायुध से विवाह की बात सुनकर मलयसुन्दरी का विलाप करना अत्यन्त मर्मस्पर्शी है। समरकेतु से सम्भावित वियोग के विषय में सोचकर वह अत्यधिक शोकाकुल होकर आत्मघात करने का निर्णय कर लेती है। आत्मघात से पहले अश्रुपात करते हए वह जिस प्रकार से गृहोद्यान स्थित वृक्षों, पुष्पों, मोर, कलहंस व शुकादि से विदा लेती है। वह सहृदय मर्मोद्रावक है वह अत्यधिक विषाद करती हुई तथा निरन्तर अश्रुपात करती हुई- हे तात रक्ताशोक! वे दूसरे लोक में जाने पर मुझे विस्मृत मत करना, हे कमलदीर्धिके! ग्रीष्म काल में मेरे निर्दयतापूर्वक स्नान करने पर तुमने दीर्घ काल तक क्लेश का अनुभव किया है (अब नहीं करना पड़ेगा), हे मित्र मोर! मेरे हस्तताल पर नृत्य करने की तुम्हारी क्रीड़ा समाप्त हो गई, हे कोकमिथुन! मेरे वियोग में शोक मत करना, हे शुकपोत! मेरे द्वारा सिखाए गए सुभाषितों को मत भूलना- ऐसा कहती हुई इतस्ततः घूमकर अपने निवासभवन में चली गई।
यहाँ गृहोद्यान स्थित, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि मलयसुन्दरी के शोक को उद्दीप्त कर रहे है। रुदन और विषाद आदि अनुभाव है। यहाँ पर समुचित विभावानुभावादि से समरकेतु वियोगन्य मलयसुन्दरी का शोक करुण रस में परिणत हो रहा है अतः यहाँ करुणरसौचित्य है।
वाक्यौचित्य
आचार्य विश्वनाथ ने वाक्य की परिभाषा इस प्रकार दी है - वाक्यं स्याद्योग्यताकांक्षासत्तियुक्तः पदोच्चयः।” योग्यता, आकंक्षा तथा आसक्ति से युक्त
78. तत्र विषादमुद्वहन्ती ... वाष्पजललावनुत्सृजन्ती ... ‘तात रक्ताशोक, लोकान्तरगतापि
स्मर्तव्यास्मि । कमलदीर्घिके, दीर्घकालं क्लेशमनुभावितासि निघृणया निदाघमज्जनेषु। सखे शिखण्डिन्, अस्तं गता ते हस्ततालताण्डवक्रीडा । ... मा कृथाः कोकमिथुनक, मद्वियोगे शोकम् । जात शुकपोत, मा तानि विस्मरिष्यसि मत्सुभाषितानि' इति भाषमाणा
परिभ्रम्येतस्तोऽस्तगिरिःस्रस्ततेजसि तिग्मभानौ स्वनिवासमगमम्। ति. म., पृ. 301-302 79. सा. द. 2/1, पृ. 24