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तिलकमञ्जरी में औचित्य
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उदयकालीन सूर्य की किरणों के स्पर्श कुमुदवन के समान तत्क्षण ही निद्रा में लीन हो गई।
एक अंगुलीयक के प्रभाव से शत्रु सेना का मुर्छित हो जाना और स्वपक्ष की सेना पर उसका कुछ भी प्रभाव न पड़ना आश्चर्य चकित करता है। अंगुलीयक के प्रभाव से समरकेतु व सेना का मूर्छित होना औचित्यपूर्ण भी है। सर्वप्रथम तो कवि को समरकेतु जैसे वीर को मारना इष्ट नहीं है। दूसरे ऐसे वीर, जिसकी प्रशंसा विपक्ष भी करे, उसके द्वारा कथा में अनेक उत्कृष्ट कार्य भी सम्पन्न करवाने है। इस प्रकार अंगुलीयक का प्रभाव अद्भुत रस की व्यञ्जना करवाने के साथ साथ कवि के उद्देश्य को भी पूरा कर रहा है। अतः यहाँ अद्भुत रसौचित्य है। करुणरसौचित्य : तिलकमञ्जरी में यथावसर करुणरस का मर्मस्पर्शी निर्वाह हुआ है। तिलकमञ्जरी को जब यह सूचना मिलती है कि हरिवाहन विजयार्ध पर्वत के शिखर पर चढ़े थे उसके बाद से उनका कुछ पता नहीं, तो वह शोकाकुल हो जाती है। उसका हृदयस्थ स्थायीभाव उद्बुध हो जाता है तथा वह रुदन प्रारम्भ कर देती है – 'हे भगवान् ! संसार में अनेक असहनीय दुःखों के भाजन इस जन के जन्मान्तर में तुम ही एक शरण हो' यह कहकर रोने से सूजी हुई आँखों व शोक से मलिन मुख शोभा वाली तिलकमञ्जरी जलसमाधि के लिए राजमहल से निकल
गई।”
हरिवाहन पूर्वजन्म में उसका पति था जो अकस्मात् ही बिना बताए बोधि लाभ के लिए चला गया था। तिलकमञ्जरी ने पूर्वजन्म में भी उसके वियोगजन्य शोक को सहा था। इस जन्म में भी उससे मिलन न हो पाने का शोक उसके लिए
76. अरिवधावेशविस्मृतात्मनश्च तस्योल्लसितकोपसारोपकम्पिताङ्गलौ कराग्रभागे
गृहीत्वाङ्गलीमेकां तदहमङ्गलीयकमतिष्ठिपम्। अधिष्ठितश्च स तदीयच्छायया तत्क्षणमेव दिग्नागदन्तमुशल इव वज्रप्रतिमया, महाहिभोग इव मणिप्रभया, समुद्रोमिरिव वाडवार्चिषा, कामप्यभिरामतामधृष्यतां पर्यपुष्यत् । ...तैश्च प्रभापीतचन्द्रातपैर्यैः समन्ततः परामृष्टमभिनवार्ककिरणस्मृष्टमिव कुमुदकाननं सद्य एवं निद्रया प्रत्यपद्यप्रतिपक्षसैन्यम् ।
ति. म., पृ. 91-92 77. 'अनेकदुःसहदु:खसंसारभजनस्य भगवन् तव जनस्यास्य जन्मातरे शरणम्' इत्यभिधाय
वाष्पायमाणनयनयुगला... रोदनोच्छूनचक्षुषा... शोकविद्राणमलिनमुखरुचा राजलोकमायतनमण्डपान्निरक्रमात्। वही, पृ. 416