SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 160 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य को नितरां अभिव्यक्त कर रही है। इस प्रकार यहाँ शृङ्गार की हृदयहारी अभिव्यञ्जना हो रही है। अद्भुतरसौचित्य : महाकवि धनपाल ने तिलकमञ्जरी में सर्वत्र अद्भुत रस की अभिव्यंजना कराई है। हाथी का आकाश में उड़ना, विद्याधरों का आकाश में भ्रमण करना, चित्रमाय का रूप बदलना, विद्याधर मुनि का आकाशमार्ग से आना, शुक का मनुष्य वाणी में बोलना आदि सहृदय को अद्भुत रस सागर में निमग्न होने का पर्याप्त अवसर देते हैं। शुक को मनुष्य वाणी में बोलना न केवल सहृदय पाठक को अपितु तिलकमञ्जरी कथा के पात्रों को भी आश्चर्यचकित कर देता है विस्मयोत्फुल्लनयना महाप्रतीहारी मन्दुरा प्रणम्य सादरमवादीद्देवीम् अस्त्येव दक्षिणदिङ्मुखदागतो निसर्गरमणीयाकृतिः शुकशुकुन्तिरेको द्वारमध्यास्ते। ब्रवीति च कृतप्रेषणोऽहं लोहित्यतटवासिनः स्कन्धावारादुपगतः कुमारहरिवाहनं द्रष्टुमिच्छामि इति। पृ. 374 शुक को मनुष्य की वाणी में बोलता देखकर महाप्रतिहारी मन्दुरा के नेत्र आश्चर्य से फैल गए। शुक का बोलना आश्चर्यजनक ही है क्योंकि सामान्य शुक सिखाए जाने पर कुछ शब्दों का उच्चारण तो कर सकता है, परन्तु धाराप्रवाह में नहीं बोल सकता। यहाँ शुक आलम्बन विभाव है तथा रमणीय आकृति उद्दीपन विभाव है। नेत्रविस्तारण अनुभाव और घृति व हर्ष सञ्चारिभाव हैं। इनसे पुष्ट होकर स्थायी भाव विस्मय, अद्भुत रस रूप में आस्वादित हो रहा है। देवी लक्ष्मी देवी द्वारा मेघवाहन को प्रदत्त दिव्य अगुलीयक की महिमा भी सहदय को विस्मित कर देती है। दिव्य अंगुलीयक से निकली प्रभा से समरकेतु सहित पूरी सेना का मूर्छित हो जाना किसी आश्चर्य से कम नहीं है। समरकेतु और वज्रायुध के बीच भयङ्कर युद्ध होता है। जिसमें वज्रायुध के प्राण संकट में पड़ जाते हैं। सेनापति वज्रायुध को हारते देख विजयवेग को दिव्य अंगुलीयक की याद आ गई, जिसकों धारण करके मनुष्य बड़े से बड़े संकट से भी बच जाता है। उसने शीघ्रता से आगे बढ़कर वह अंगुलीयक वज्रायुध की अंगुली में पहना दी। जिसे पहनते ही उसकी प्रभा से उस सेनापति ने अनिर्वचनीय रमणीयता व अपराजेयता को प्राप्त किया। अंगुलीयक की कांति से शत्रु सेना
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy