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________________ तिलकमञ्जरी में औचित्य 159 अशोक वृक्ष आदि उद्दीपन विभाव है। हरिवाहन को देखकर रोमाञ्च व श्वास गति का तीव्र होना अनुभाव है। हर्ष तथा वीड़ा आदि व्याभिचारिभाव है। यहां पर विभावादियों के उचित निबंधन से रति स्थायी भाव की शृङ्गार रस रूप में चारु अभिव्यञ्जना हो रही है। समरकेतु को देखते ही मलयसुन्दरी उसके रमणीय रूपपाश में बँधकर अपना हृदय उसे दे बैठती है। वह अपने निकट स्थित सखियों को विस्मृत कर अपने चंचल नेत्रों से एकटक उसे देखने लगती है। उसकी मनोदशा देखिए - इति चिन्तयन्त्या एव मे साभ्यसूयः स्वरूपमाविष्कर्तुमिव हृदयमविशद्गृहीशृङ्गारो मकरकेतुः। तदनुमार्गप्रवष्टिरचिततरणलाक्षारस लाञ्छितेष्विव प्रससार सर्वाङ्गषु रागः। वीतरागदेवतागारसंनिधौ विरुद्धं रागिणामवस्थानमिति ...... रोमाञ्चजालकमुच्चममुचत्कुचस्थली। पृ. 277 उसके विषय में चिन्तन करते ही इर्ष्या सहित मानों अपने रूप को प्रकट करने के लिए कामदेव ने शृङ्गार धारण कर मेरे हृदय में प्रवेश किया। उसके पीछे ही लाक्षरस से चिन्हित युद्ध व्यूह रचना के समान राग सभी अङ्गों में फैल गया। वीतराग देवता के मन्दिर पर रागियों का रहना निषिद्ध है मानों उसी राग को धोने के लिए स्वेद जल बहने लगा। स्वेद जल से उत्पन्न ठण्डक के उद्रेक से मानों वक्षःस्थल काँपने लगा। (वस्तुत: वक्षस्थल के कम्पन का कारण रोमाञ्च है) तब मैं लज्जा तथा अनुराग से एक साथ अभिभूत होकर 'समुद्र की वायु शीतल है। बार-बार ऐसी सीत्कार करके, सखियों को बीच में करके 'धूप का स्पर्श कर्कश (तेज) है' बार बार उत्तरीय से मुख पोंछ कर, ‘अतिदीर्घ सोपान लङ्घन से श्रान्त हो गई हूं' मैं कौन हूँ, कहाँ पर हूँ मेरा देश कौन सा है - सब भूलती हुई, शब्द को न सुनती हुई, मैं न जाने कैसी दृष्टि से उसे देखने लगी।" किसी के प्रति प्रेम का ज्ञान उसी क्रियाओं से होता है। मलयसुन्दरी का हृदय पर नियन्त्रण न रहना, व उसकी अनियन्त्रित क्रियाएँ समरकेतु के प्रति उसके प्रेम 75. ततोऽहम् लज्जयानुरागेण च युगपदस्कन्दिता 'शीतलो जलधिवेलानिलः' इति विमुक्त सीत्कारा मुहुः सहचारीजनमन्तरे कृत्वा, 'कर्कशो बालातपस्पर्शः' इति मुहुरुत्तरीयांशुकेनाननं स्थगयित्वा, श्रान्तातिदीर्घसोपानपथलङ्घनेन ..... काहम्, क्वागता, क्व स्थिता, को मे देशः - किं तरलतारकया कि मुग्धयकिमङ्गीकृतप्रागल्भ्यया .... न जानामि कीदृश्या दृशा तमद्राक्षम्। ति.म., पृ. 277-278
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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