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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
महाकवि धनपाल ने सर्वप्रथम अपने कुल की अतिशय उदात्तता का वर्णन किया है। धनपाल काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण है। धनपाल के पितामह देवर्षि दानवीर थे। धनपाल के पिता का नाम सर्वदेव था, जो स्वयं सभी शास्त्रों के अध्येता, कर्मकाण्ड, में निपुण थे। इनकी वाणी काव्य निबन्धन व काव्यार्थ दोनों में समान रूप से कुशल थी। इनके कुल के वर्णन से यह ध्वनित होता है कि जिस कुल में सदैव प्रकाण्ड विद्वान् उत्पन्न हुए हैं, उसी कुल में उत्पन्न धनपाल किस प्रकार से सामान्य व्यक्ति हो सकते हैं।
सम्राट मेघवाहन इक्ष्वाकु वंशीय राजा है। इसकी राजधानी अयोध्या नगरी है। इसके कार्य इसके प्रशंसित कुल परम्पराओं के अनुरूप ही हैं। यह विद्याधर मुनि के दर्शन करके कहते है कि "यह राज्य, पृथ्वी, धन अथवा मेरा यह शरीर जो भी आपके अथवा अन्य के प्रयोजन की सिद्धि में उपयोगी हो, वह स्वीकार करे।'' मेघवाहन के ये वचन इसकी कुल परम्पराओं के अनुरूप ही हैं। इक्ष्वाकु वंशीय राजा सदा परहित तथा प्रजा रंजन के कार्य में संलग्न रहते है। परार्थ सम्पादन में ये अपने शरीर की भी गणना नहीं करते। मुनि के प्रति वंशानुकूल मेघवाहन के ये वचन कुलौचित्य का आधान कर रहे हैं।
मेघवाहन के लिए अपने प्राणों से अधिक अपने वचनों का महत्त्व है। जब वेताल मेघवाहन को किसी ऐसे राजा की शीश लाने के लिए कहता है, जिसने कभी किसी याचक को निराश न किया हो तथा प्राणों का संकट उत्पन्न होने पर भी शत्रु के समक्ष सिर न झुकाया हो। तब मेघवाहन उसे अपना शीश स्वीकार करने के लिए कहते हैं। वेताल के 'हाँ' कहने पर वे अपना शीश काटने लगते हैं। उस समय उनके मन में एक क्षण के लिए भी अपने प्राणों को बचाने का विचार नहीं आता। उनके इस साहस को देखकर तुलसीदास की यह उक्ति याद आती है। - "रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई।'' महाराज
45. अलब्ध देवर्षिरिति प्रसिद्धिं यो दानवर्षित्वविभूषितोऽपि । ति. म., भूमिका, पद्य 51
शास्त्रेष्वधीती कुशलः क्रियासु, बन्धे च बोधे च गिरां प्रकृष्टः।
तस्यात्मजन्मा समभून्महात्मा, देवः स्वयंभूरिव सर्वदेवः ।। वही, पद्य 52 47. इदं राज्यम्, एषा में पृथिवी एतानि वसूनि, ..... इदं शरीरं, एतद्गृहं गृह्यतां स्वार्थ सिद्धये
__ परार्थसम्पादनाय वा, यदत्रोपयोगार्हम् । वही, पृ. 26 48. वही, पृ. 51-52