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तिलकमञ्जरी में औचित्य
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दशरथ ने अपने प्राण देकर भी अपने वचन की रक्षा की थी। उसी इक्ष्वाकु वंशोत्पन्न सम्राट् मेघवाहन का यह कृत्य भी प्रस्तुत उक्ति को चरितार्थ कर रहा है। अतः यहाँ कुलौचित्य है।
तिलकमञ्जरी कथा का नायक हरिवाहन सम्राट मेघवाहन का पुत्र है। यह भी अपने कुलोचित आचार-व्यवहार का वहन करता है। परोपकार के लिए तो यह सदैव तत्पर रहता है। अनङ्गरति के दुःख को जानकार यह उसके लिए छः माह तक कठोर तप करता है।" यह उसके कुलोचित आचरण का उत्कृष्ट उदाहरण है। अपने शरीर को कष्ट देकर किसी दूसरे व्यक्ति के प्रयोजन की सिद्धि तो इक्ष्वाकु वंशज ही कर सकता है। हरिवाहन के इस कृत्य से यह भी व्यञ्जित होता है कि इक्ष्वाकु वंशज अपना सर्वस्व देकर भी पर हित में रत रहते हैं।
मलयसुन्दरी हरिवाहन का परिचय देते हुए उसे सभी शास्त्रों व शस्त्र विद्या में निपुण बताती है। शास्त्राध्ययन का औचित्य है बुद्धि का निर्मलीकरण तथा तत्त्वों का ज्ञान। तत्त्व का ज्ञान हो जाने पर मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन मे सजग हो जाता है। राजा का कर्तव्य होता है प्रजानुरञ्जन करना। प्रजानुरञ्जन इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का सर्वोपरि धर्म है। उत्तररामचरित' में भी महर्षि वशिष्ट राजा राम को निर्देश देते हैं कि प्रजाकल्याण में निरत हो जाओं, क्योंकि उससे यश मिलता है। जो कि आपका सर्वोत्तम धन है।" हरिवाहन को शस्त्र विद्या में पारंगत कहने से ध्वनि निकलती है कि शत्रु इनसे भयभीत रहते है। शस्त्र विद्या में कुशलता का फल है अपने राज्य की सभी सीमाओं को शत्रु-शून्य कर देना। हरिवाहन का अपने कुलानुरूप शास्त्राध्ययन तथा शास्त्र विद्या में निपुणता कुलौचित्य को कर रही है। तत्त्वौचित्य
तत्त्वौचित्य से अभिप्राय है काव्य में तात्त्विक बातों का सन्निवेश। काव्य में सत्यार्थ (तात्त्विक बातों) की उद्भावना से उसकी उपादेयता अत्यधिक बढ़ जाती है
49. ति.म., पृ. 398-400 50. निरवद्यशस्त्रविद्यापारदृश्वा किमपि कुशल: कलासु ...। वही, पृ. 356 51. युक्तः प्रजानमनुरञ्जने स्यास्तस्माद्यशो यत् परमं धनं वः । उ. च. रा. 1/11