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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
अलङ्कारौचित्य वर्ण्य विषय के अनुकूल अलङ्कार योजना ही अलङ्कारौचित्य कहलाती है। अलङ्कारौचित्य की परिभाषा देते हुए आचार्य क्षेमेन्द्र कहते हैं अर्थानुकूल अलङ्कार से कवि की उक्ति उसी प्रकार सुशोभित होती है, जिस प्रकार उन्नत पयोधरों पर लटकते हार से कोई मृगनयनी सुशोभित होती है।" आचार्य आनन्दवर्धन भी इसी तथ्य को समर्थन करते हुए कहते हैं-जिस अलङ्कार की रचना रस से आक्षिप्त रूप में बिना किसी अन्य प्रयत्न के हो सके, वहीं अलङ्कार मान्य है। महाकवि धनपाल की तिलकमञ्जरी में प्रयुक्त अलङ्कार औचित्योपेत हैं। तिलकमञ्जरी में लगभग सभी प्रमुख अलङ्कारों का प्रयोग पदे-पदे परिलक्षित होता है। औचित्यपूर्ण अलङ्कारों से उत्पन्न चमत्कार को देखिए
अखण्डदण्डकारण्यभाजः प्रचुरवर्णकात् ।
व्याघ्रादिवभयाघ्रातो गद्याव्यावर्तते जनः ॥" अतिदीर्ध समासों से युक्त तथा अधिक वर्णनों वाले गद्य से डरकर लोग उसी प्रकार विरक्त होते हुए हैं, जिस प्रकार खण्ड रहित अटवी विशेष में रहने वाले लोग, अनेक रंगों वाले व्याघ्र से। यहाँ पर प्रचुर वर्णनों तथा समास बहुल गद्य की उपमा व्याघ्र से दी गई है। जिस प्रकार लोग अनेक वर्ण वाले व्याघ्र से डरते हैं, उसी प्रकार दीर्घ समास युक्त रचना से लोग भयभीत हो जाते हैं। यहाँ पर श्लेष अलङ्कारसे युक्त उपमा अलङ्कारकी छटा दर्शनीय है, अतः यहाँ पर अलंकारौचित्य है। उपमा अलङ्कारका एक और उदाहरण द्रष्टव्य है - शुष्कशिखरिणि कल्पशाखीव, निधिरधनग्राम इव, कमलखण्ड इव
मारवेऽध्वनि भवभीमारण्ये इह वीक्षितोऽसि मुनिनाथ। हे मुनिश्रेष्ठ ! इस संसार रूपी भीषण वन में शुष्क पर्वत पर कल्पवृक्ष के समान, निर्धन ग्राम के धनकोश के समान, मरुस्थल के मार्ग में कमलवन के समान आप दिखते हैं। 37. अर्थोचित्यवता सूक्तिरलङ्कारेण शोभते ।
पीनस्तनस्थितेनेव हारेण हरिणेक्षणा ।। औ. वि. च., का. 15 38. रसाक्षिप्ततया यस्य बन्धः शक्यक्रियो भवेत् ।
अपृथग्यत्ननिर्वत्य सोऽलंकारो ध्वनौ मतः ।। ध्वन्या., 2/16 39. ति.म., भूमिका, पद्य 151 40. वही; पृ. 218