________________
140
तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य के साथ संबंध स्थापित कर इसे एक सिद्धांत रूप प्रदान किया है। परवर्ती आचार्यों ने भी इसी सिद्धांत को आधार बनाकर विवेचनाएँ की हैं। अलङ्कार निबन्धन में
औचित्य के पालन का निर्देश करते हुए आनन्दवर्धन कहते हैं कि अलङ्कार का बन्ध रस को ध्यान में रखकर इस प्रकार अनायास होना चाहिए कि कवि को उसके लिए पृथक से कोई यत्न न करना पड़े।" यदि कवि यत्न पूर्वक अलङ्कार योजना करेगा, तो काव्य का सर्वस्व रस गौण हो जाएगा तथा अलङ्कार प्रधान। इसी प्रकार आनन्दवर्धन ने संघटनौचित्य, गुणौचित्य, प्रबन्धौचित्य तथा रसौचित्य की विस्तृत विवेचना की है।
इस प्रकार आचार्य आनन्दवर्धन ने औचित्य का विभिन्न काव्य तत्त्वों के साथ संबंध स्थापित कर उस आधार भूमि का निर्माण कर दिया, जिस पर आचार्य क्षमेन्द्र ने औचित्य सिद्धांत रूपी भव्य प्रासाद को आकार प्रदान किया।
अभिनवगुप्त ने भी औचित्य पर अपना मत प्रस्तुत किया है। अलङ्काकारौचित्य का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि अलङ्कार औचित्योपेत होने पर ही काव्य के आत्म तत्त्व को अलंकृत करते है। अनौचित्यपूर्ण अलङ्कार सन्निवेश उसी प्रकार हास्यास्पद हो जाता हैं जिस प्रकार किसी साधु के शरीर पर आभूषण।" अभिनवगुप्त के अनुसार काव्याभास, रसाभास, भावाभास का कारण ही औचित्यभङ्ग ही है यथा-औचित्यभङ्ग काव्य काव्याभास, रसानौचित्य रसाभास तथा भावानौचित्य भावाभास होता है। इस प्रकार अभिनवगुप्त ने भी औचित्य को काव्य का आवश्यक तत्त्व माना है।
आचार्य कुन्तक ने भी औचित्य के महत्त्व को स्वीकार किया है। उन्होंने वक्राक्ति के स्वरूप वर्णन, उसके भेद-कथन व काव्य के सौंदर्याधायक तत्त्वों के
18. रसादिक्षिप्ततया यस्य बन्धः शक्यक्रियो भवेत् ।।
अपृथग्यत्ननिर्वर्त्यः सोऽलङ्कारो ध्वनौ मतः ।। ध्वन्या., 2/16 19. कटक के यू रादिभिरपि हि शरीर समवायिभिश्चे त न आत्मै व
तत्तच्चित्तवृत्तिविशेषौचित्यत्मतयालङ्क्रियते। तथाहि-अचेतन शवशरीर कुण्डलायुपेतमपि न भाति, अलङ्कार्यस्याभावात् । यतिशरीरं कटकादियुक्तं हास्यावह
भवति, अलङ्कार्यस्यानौचित्यात्। ध्वन्या 2/5 की लोचन टीका, पृ. 209 20. औचित्येन प्रवृतौ चित्तवृत्तेः आस्वाद्यत्वे स्थायिन्या रसः व्यभिचारिण्या भावः ।
अनौचित्येन तदाभासः। लोचन टीका।