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तिलकमञ्जरी में औचित्य
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आचार्य रुद्रट ने औचित्य की विस्तृत विवेचना की है। इनका गुण-दोष विवेचन औचित्य आधारित है। इन्होंने अनुप्रास अलङ्कार के प्रयोग में औचित्य को महत्त्वपूर्ण तत्व बताया है। इनके अनुसार औचित्य तत्त्वज्ञ कवि ही यमकालङ्कार का प्रभावशाली प्रयोग कर सकता है। " पुनरुक्ति दोष के विषय में रुद्रट का मत है कि औचित्यवशात् यह दोष स्थितिविशेष (हर्षातिरेक अथवा भयातिरेक) में गुण हो जाता है। ग्राम्य दोष के विषय में वे कहते हैं कि देश, कुल, जाति, विद्या, आयु स्थान और पात्रों के व्यवहार में अनौचित्य का होना ही ग्राम्य दोष है।” इससे स्पष्ट है कि रुद्रट औचित्य को ग्राम्यता तथा अग्राम्यता की कसौटी मानते हैं। रसों पर विचार करते हुए भी रुद्रट ने औचित्य का व्यवहार किया है। उनके मतानुसार करुण भयानक एवं अद्भुत रसों में वैदर्भी तथा पाञ्चाली रीति उचित है तथा रौद्र रस में लाटी तथा गौडी | औचित्यानुसार ही रीतियों का विधान किया जाना चाहिए।" इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि रुद्रट औचित्य को काव्य का आवश्यक तत्त्व मानते हैं तथा काव्य के विविध तत्त्वों के औचित्यपूर्ण प्रयोग की महत्ता पर बल देते है।
औचित्य मीमांसा के क्षेत्र में आचार्य आनन्दवर्धन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्होंने ध्वन्यालोक में औचित्य की गम्भीर व युक्तियुक्त विवेचना की है। आनन्दवर्धन ने रस विवेचन में औचित्य के पालन को आवश्यक बताया है। उनके मतानुसार रसभङ्ग का एकमात्र कारण अनौचित्य है और औचित्य से बढ़कर रस का पोषक अन्य कोई तत्त्व नहीं है।” इस प्रकार आनन्दवर्धन ने औचित्य का रस
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एताः प्रयत्नादधिगम्य सम्यीगौचित्यमालोच्य यथार्थसंस्थम् ।
मिश्राः कवीन्द्रैरथानल्पदीर्घाः कार्याः मुहुश्चैव गृहीतमुक्त: ।। का. ल. 2/32
इति यमकविशेषं सम्यगालोचयद्भिः ।
सुकविभिरभियुक्तैर्वस्तु चौचित्यविद्भिः ।। वहीं, 3/59 ग्राम्यत्वमनौचित्यं व्यवहाराकारवेशवचनानाम् । देशकुलजातिविद्यावित्तवय: स्थानपात्रेषु ।। वही, 11.9 वैदर्भीपाञ्चाल्यौ प्रेयसि करुणे भयानकाद्भुतयोः । लाटीया गौडीये रौद्रे कुर्यात् यथौचित्यम् ।। वही 16/20 अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम्। औचित्योपनिबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा ॥ ध्वन्या, पृ. 190