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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
आधान करता है तथा रमणी के नेत्रों में लगा हुआ अञ्जन काला होने पर भी अपने अधिकरण की सुन्दरता के कारण मनोहारी बन जाता है।' भामह के इन कथनों से तात्पर्य है कि दोष अनौचित्य का परिणाम है औचित्यपूर्ण वर्णन से दोष भी गुण हो जाते है। साधु और असाधु शब्दों के प्रयोग में भी उन्होंने औचित्य की ओर संकेत किया है।"
आचार्य दण्डी ने भी औचित्य का अप्रत्यक्ष रूप में ही विवेचना किया है। काव्यदोष निरूपण में उन्होंने औचित्य की ओर संकेत किया है। दण्डी का मत है कि अनुचित सन्निवेश से ही दोष उत्पन्न होता है तथा कवि कौशल से दोष भी गुण बन जाता है।" उनके अनुसार देश, काल, न्याय, लोक आदि का विरोधी वर्णन दोष उत्पन्न करता है परन्तु कवि अपनी काव्य निपुणता व वर्णन कौशल से इन दोषों को गुणों में परिणत कर सकता है।
आचार्य उद्भट्ट ने काव्यालङ्कारसारसंग्रह नामक ग्रंथ में औचित्य का स्पष्टत: उल्लेख किया है। उनके अनुसार काम क्रोधादि के कारण रस और भाव को अनौचित्यपूर्ण निबंधन में उर्जस्वि अलङ्कार होता है, तथा इनके औचित्यपूर्ण निबंधन से रस और भाव की स्थिति होती है।" अनुचित निबंधन से तात्पर्य है-लोक-व्यवहार से विरोध। इस प्रकार लोक व्यवहार औचित्य तथा अनौचित्य की निकष है।
9. (क) सन्निवेशविशेषात्तु दुरुक्तमपि शोभते ।
नीलं पलाशमाबद्धमन्तराले नजामिव ।। का. ल., 1/154 (ख) किञ्चिदाश्रयसौन्दर्यात् धते शोभामसाध्वपि ।
___कान्ताविलोचनन्यस्तं मलीमसविवाञ्जनम् ।। वही, 1/155 10. (क) मालाकारो रचयति यथा साधु विज्ञाय मालाम् ।
योज्यं काव्येष्ववहितं धिया तद्वदेवाभिधानम् ।। वही, 1/169 (ख) वक्रवाचां कवीनां ये प्रयोगं प्रति साधवः ।
प्रयोक्तुं येन युक्ताश्च तदविवेकोऽयमुच्यते । वही, 6/23 11. विरोधः सकलोऽप्येष कदाचित् कविकौशलात् ।
उत्क्रम्य दोषगणनां गुणवीथीं विगाहते ।। का. द. 3/79 12. अनौचित्यप्रवृतानां कामक्रोधादिकारणात् ।
भावानां च रसानां च वधम् उर्जस्वि कथ्यते ।। का. सा. स., पृ. 181