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________________ तिलकमञ्जरी में रस ___133 वीरपुरुषतूण्येव गौरखराच्छभल्लशरभरोचितया,जठरजीर्णानेकदिव्यौषधिसमूहयापि व्याधीनां गणैराक्रान्तया गन्तुमटवीभुवा प्रावर्तत। पृ. 199-200 समरकेतु के यात्रा प्रसङ्ग में धनपाल ने गम्भीर व दुर्गम समुद्र का वर्णन इस प्रकार से किया है कि वह भय को उत्पन्न करता है।" शान्त रस शान्त रस का स्थायी भाव शम है। संसार की निस्सारता का ज्ञान अथवा परम तत्त्व का स्वरूप आलम्बन होता है। जब सांसारिक प्रपञ्च व माया की निस्सारता का भाव मन में उदित होता है, तब सहृदय शान्त रस की नदी में निमग्न हो जाता है। तिलकमञ्जरी में कुछ स्थलों पर शान्त रस का अभिव्यञ्जना हुई है। मदान्ध गज हरिवाहन को लेकर अदृष्टपार नामक सरोवर में गिर जाता है और हरिवाहन उस सरोवर से बाहर आकर तट पर बैठकर सांसारिक अतात्त्विकता के विषय में चिन्तन करता है। उसका यह चिन्तन शान्तरस को भली-भाँति व्यञ्जित करता है - अहो विरसता संसारस्थितेः, अहो विचित्रता कर्मपरिणतीनाम्, अहो यदृच्छाकारितायामभिनिवेशो विधिः अहो भङ्करस्वभावताविभावनाम् । ... एवमस्वस्थमानसो मानयामि न तद् राज्यम्, न ते राजानः, न स मदान्धगजघटासहस्रसंकुल स्कन्धावारः, न ते छत्रचामरोदयो नरेन्द्रालङ्काराः, न तानि श्रवणहारीणि चारणस्तुतिवचनानि, सर्वमेव स्वप्नविज्ञानोपमं सम्पन्नम्। ..... सर्वं एवायमेवप्रकारः संसारः । इदं तु चित्रं यदीदृशमप्येनमव गच्छतामीदृशीमपि भावानामनित्यतां विभावयतामीदृशानपि दशाविशेषाननुभवतां न जातुचिज्जन्तूनां विरज्यते चित्तम्, न विशीर्यते विषयाभिलाषाः, न भङ्गरी भवति भोगवाञ्छा, नाभिधावति नि:सङ्गगता बुद्धिः, नाङ्गीकरोति निर्व्या बाध नित्यसुखमपवर्गस्थानमात्मा। सर्वथातिगहनो बलीयानेष संसारमोहः। पृ. 244 इसमें मिथ्या प्रतीत होने वाला संसार आलम्बन विभाव है तथा अदृष्टपार सरोवर उद्दीपन विभाव है सांसारिक वस्तुओं के प्रति तुच्छता रूप मति अनुभाव है। आवेग, विषाद आदि व्यभिचारी भाव है। 28. ति. म., पृ. 120-122
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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