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________________ 128 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य प्रचलदतिचारुपत्र मुदरविनिहितमहाहिभीषणने कास्त्र पत्ररथराजमिव रथाङ्गपाणिरध्यास्य रथं यथासंनिहितेनात्मसैन्येनानुगम्यमानो युगपदाहतानां कुपितयमहुङ्कारनुकारिभाकारभैरवमतिगम्भीरमारसन्तीनां समरढक्कानां ध्वनितेन पातयन्निव सबन्धनान्यरातिहृदयानि तारतरव्याहारिणां बन्दिवृन्दानां हृदयहारिणा जयशब्दाडम्बरेण मुखरिताम्बरः शिबिरान्निरगच्छत्। कृतव्यूहरचनश्च समरसंक्षोभक्षमायामुपान्तभूमावस्थात्। पृ. 86 इसमें शत्रु की सेना आलम्बन विभाव है तथा घुड़सवारों द्वारा दी गई सूचना व स्तुति पाठकों का विजय गान उद्दीपन विभाव है। वज्रायुध का उत्साहित होकर गम्भीर स्वर में रथ को लाने की आज्ञा देना अनुभाव है। समरकेतु के पिता सिंहलेश्वर चन्द्रकेतु की आज्ञा से दुष्ट सामान्तों के दर्प दमन के लिए दक्षिणापथ की ओर जाती हुई समरकेतु की सेना के वर्णन में भी वीर रस की अभिव्यञ्जना हो रही है - ___पुरस्सरपुरोधसा द्विजातिवृन्देनानुगम्यमानश्चरणाभ्यामेव गत्वा प्रथमकक्षान्तरद्वारभूमिमग्रतः ससंभ्रमव्यापारिताङ्कशेन वज्रांकुशननाम्ना महामात्रेणप्राङ्मुखीकृत्य विधृतं शितपिष्टपङ्कपाण्डु रितगात्रमक्षुद्रमणिचित्रनक्षत्रमालापरिक्षिप्तसिन्दूरपाटलविकटकुम्भभागमारोपितानेकनिशितशस्त्रप्रभा सारशातकुम्भसारीपरिकरितपृष्ठपीठमश्रान्तमदवरिधारादुर्दिनान्धकारितकरटकूट त्रिकुटपर्वतमिव परित्यक्तस्थावरावस्थममरवल्लभाभिधानं गन्धगजमारुढो शरासनेन सनाथवामहस्तः सलीलमुद्भूयमानवालव्यजनकलापो मदद पसर्पत्पदाति निर्दयपादपातप्रवर्तिताकाण्डमेदिनीकम्पः प्रहर्षोत्तालवैतालिक वाततारतरोद्धष्यमाण जयध्वनिर्ध्वनद्विजयमङ्ग लाभिधानतूर्यनिर्घोषबधिरिताखिलबह्मस्तम्ब : पुस्तात्सलिलचलितकरिघटारूढकिङ्कर पुरुषपातितविरल घनघातानामुत्पातनि -र्घातघोरघोषोद्गार मतितारमारसन्तीनां ढकानां ध्वनितेन मुखरन्निखिलान्यपि दिशां मुखानि ... पुरः प्रसर्पतः श्वेतातपत्रखण्डस्य पर्यन्तयायिनामनिल भरितरन्ध्रवर्त्मव्यक्तरूपाणामिभवराहशरभशार्दुलमकरमत्स्याद्याकारधारिणामनेकपार्थिवसमरसंगृहीतानां चिह्नकानामपद्धतार्करोचिषां चक्रवालेन जटिलीकृतदिगन्तरालो राजकुलान्निरगच्छम् । पृ. 115-116 यहाँ दुष्ट सामन्त आलम्बन विभाव है तथा वन्दिपुत्रों की जय-जयकार ध्वनि उद्दीपन विभाव है। सेना का पृथ्वी को मानो हिलाते हुए पादाक्षेप करते हुए चलना, विजयनाद करना आदि अनुभाव हैं।
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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