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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
यहाँ विद्याधर समूह आलम्बन विभाव तथा प्रभा मण्डल से निकलना व आकाश मार्ग से उतरना उद्दीपन विभाव है। निर्निमेष दर्शन व उल्लासित मनोवृत्ति अनुभाव हैं। हर्ष, उत्सुकता, आवेग और वितर्क सञ्चारी भाव हैं।
महाप्रतीहारी मन्दुरा भी शुक को बोलते देखकर विस्मित हो जाती हैं
अथागत्य विस्मयोत्फुल्लनयना महाप्रतीहारी मन्दुरा प्रणम्य सादरमवादीद्देवीम् - 'अस्त्येव दक्षिणदिङ्मुखादागतो निसर्गः रमणीयाकृतिः शुकशकुन्तिरेको द्वारमध्यास्ते। ब्रवीति च कृतप्रेषणोऽहं लौहित्यतटवासिनः स्कन्धावारादुपगतः कुमारहरिवाहनं द्रष्टुमिच्छामि' इति। पृ. 374
निशीथ नामक दिव्य वस्त्र का वर्णन भी आश्चर्यजनक है। इस दिव्य वस्त्र के स्पर्श से शुक, गन्धर्वक के अपने पूर्व रूप में आ जाता है -
अथ शिरीषकेशररेणुपरमाणुभिरिवाब्धेन शरदरविन्दकोशमध्यादिव लब्धजन्मना सुधारसकुण्डकुक्षेरिवाकृष्टेन मलयाद्रिहरिचन्दनच्छाययेव छुरितेन मूर्छामिव... तदीयसंस्पर्शेन परवशीकृतं बिभ्रतो ममाङ्गमुत्सङ्गदेशादलक्षितोद्गमः सहसैव तं समुत्क्षिप्य दिव्यपटमग्रहस्ताभ्यामुदग्रयौवनः पुमानग्रतोऽभवत्। अवेक्षय च ततोऽभिमुखविन्यस्तविस्मयस्तिमितचक्षुषा पश्चात्प्रहर्षपरवशेन गन्धर्वको गन्धर्वक इति...। पृ. 376-77
इस प्रकार हम देख सकते है कि धनपाल ने तिलकमञ्जरी नामक इस प्रेम कथा में अद्भुत रस की व्यापक रूप से अभिव्यञ्जना की है। शृङ्गार रस तिलकमञ्जरी का अङ्गी रस होने पर भी सत्य ही यह कथा अद्भुत रस स्फुटा है। करुण रस
इष्ट के नाश और अनिष्ट की प्राप्ति से करुण रस आविर्भूत होता है। करुण रस का स्थायी भाव शोक है। प्रिय व्यक्ति विनाश, पराजय और शोचनीय व्यक्ति आदि इसके आलम्बन विभाव होते है। दाहकर्म, यश व गुणों का स्मरण, मृत व्यक्ति के आभूषण वस्त्र आदि उद्दीपन विभाव होते हैं। रोदन, नि:श्वास, प्रलाप, निन्दा, भूमिपतन आदि इसके अनुभाव होते हैं। मोह, स्मृति दैन्य, चिन्ता,
25. इष्टनाशादनिष्टाप्तेः करुणाख्यो रसो भवेत्। सा. द., पृ. 116