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________________ तिलकमञ्जरी में रस _123 विषाद, श्रम, जडता आदि सञ्चारी भाव होते हैं। तिलकमञ्जरी में जहाँ शृङ्गार रस धारा अनवरत प्रवाहित है वहीं धनपाल ने अनेक स्थलों पर करुण रस की ऐसी सफल अभिव्यञ्जना की है कि पाठक करुणा की नदी में आकण्ठ निमग्न हो जाता है और उसके नेत्र जल से परिपूर्ण हो जाते है। करुण रस की व्यञ्जना सर्वप्रथम वेताल के प्रसङ्ग में होती है, जब राजा वेताल को देने के लिए अपना शीश काटने लगता है। ऐसे दृश्य में न केवल पाठक ही अपितु देवाङ्गनाएँ भी हाहाकार कर उठती हैं - आबद्धपरिकरश्च कृत्वा देवतायाः प्रणामम्...कृतान्तकोपानल धूमदण्डानुकारिणं कृपाणमुज्झितकृपः स्कन्धपीठे न्यधापयत् । ...अर्धावकृत्तकन्धरे । च शिरसि सहसैवास्य केनापि धृत इव स्तम्भित इव नियन्त्रित इवाक्रान्त इव नाल्पमपि चलितुमक्षमत दक्षिणो बाहुः... किमेतदिति संजातविस्मयश्च नृपतिः ... दक्षिणकरादितरेण पाणिना कृपाणं जग्राह। करविमुक्तमौलि- बन्धनिरालम्बकन्धरे च छेदमार्गमिव सुखच्छेदाय विकटावकाशं कर्तुमधोमुखमवनते शिरसि निर्दयं व्यापारयितुमाहितप्रयत्नस्तत्कालमुल्लासितेन मन्दिकृताखिलेन्द्रियशक्तिना मूर्छागमेन विरलविलुप्तसंज्ञः ... अतिश्रव्यतया सुधारसे नेव श्रवणविवरमध्यापयन्तमश्रुतपूर्वममरसुन्दरीजनस्य हाहारवमशृणोत्। पृ. 52-54 हरिवाहन का हाथी के द्वारा अपहरण कर लिए जाने पर समरकेतु के विलाप और शोक विह्वलता के समय भी करुणा की नदी बह निकलती है - हा सर्वगुणनिधे ! हा बन्धुजैनवल्लभ ! हा प्रजाबन्धो। हा समस्तकलाकुशल ! कोसलेन्द्रकुलचन्द्र ! हरिवाहन। कदा द्रष्टव्योऽसि इति विलपन्नेव मीलितेक्षणः क्षणेनैव निकटोपविष्टस्य खड़ग्रहिणो जगाम पर्यस्तविग्रहस्तिर्यगुत्सङ्गम्। अत्रान्तरे निरन्तरोदितरुदितरवसंभेदमेदुरो दारयन्निव दयालुहृदयानि रोधोरन्ध्रमाचस्कन्द दारुणो राजवृन्दस्याक्रन्दः । पृ. 190 ___ यहाँ हरिवाहन आलम्बन विभाव है तथा हरिवाहन के प्रति प्रेम उद्दीपन विभाव हैं विलाप और रोदन अनुभाव है। हरिवाहन के प्रति मोह तथा उसकी चिन्ता करना आदि सञ्चारी भाव हैं। एक अन्य प्रसङ्ग में जब हरिवाहन आर्या छन्द में लिखे हुए प्रेम पत्र का अर्थ करते है तो समरकेतु का मलयसुन्दरी से वियोग का दुख नवीन हो जाता है, उस समय सहृदय भी स्वयं को उसी दु:ख से दुखी पाता है -
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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