________________
114
तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
जगत्यामवतारमखिलविश्वोपकारी वारिदागमः। ... विकसिताकुण्ठक लकण्ठचातककलकले कठोरदुर्दरारटितदारितश्रवसि विश्रुतापारवाहिनीपूरघूत्कारे घोरघनगर्जितारावजर्जरितरोधसि द्योतमानविद्युद्दामदारुणेविततवारिधाराधोरणिध्वस्तधीरकामुकमनसि सान्द्रकुटजद्रुमामोदमूर्छितागच्छन्नदुच्छन्नकल्पाध्वगकलापे समन्ताद्विजृम्भितेम्बुधरदुर्दिनेविधुरीभूतमनस: कोसलाधिपसुतस्य ... श्रमेऽप्यायतोष्णान् पुनः पुनः श्वासपवनानमुञ्चतः, परमचिन्तायासजन्मना प्र चीयमाने नानु दिन मप्रतिविधे ये न दे ह क्र शिम्ना कदर्थ्य मानस्य ग्रीष्मकालादधिकदुःसहो बभूव वर्षासमारम्भः। पृ. 178-181
यहाँ पर पूर्वराग (अभिलाष) विप्रलम्भ की अभिव्यञ्जना हुई है। नायिका तिलकमञ्जरी आलम्बन विभाव है तथा नायक हरिवाहन आश्रय है। वर्षा ऋतु उद्दीपन विभाव है। तिलकमञ्जरी के प्रति उसकी व्याकुलता, व्यग्रता, उसके लिए उष्ण श्वास आदि छोड़ना व उसकी चिन्तन करते हुए पूरी-पूरी रात बिता देना अनुभाव है। तिलकमञ्जरी के साथ संगम के उपायों की चिन्ता, आशा-निराशा, तर्क-वितर्क, उत्कण्ठा आदि व्याभिचारी भाव है।
गन्धर्वक की प्रतीक्षा करते-करते ग्रीष्म ऋतु बीत गई और वर्षा ऋतु भी आकर हरिवाहन के सन्ताप को और अधिक बढ़ाकर चली गई। शरद् ऋतु भी आ गई, परन्तु हरिवाहन के संताप को शान्त करने वाला गन्धर्वक नहीं आया और धीरे-धीरे गन्धर्वक के प्रत्यागमन की आशा शून्य हो जाती है। वह अपना दिल बहलाने के लिए समरकेतु आदि कुछ मित्रों को साथ लेकर राज्यभ्रमण के लिए निकलता है। इसी बीच कुछ घटनाएँ शीघ्रता से घटित होती हैं और कुछ क्षणों के लिए हरिवाहन की तिलकमञ्जरी से भेंट होती है।
हरिवाहन की तिलकमञ्जरी से प्रथम भेंट वैताढ्य पर्वत पर स्थित अदृष्टपार सरोवर के निकट एक इलायची लतामण्डप में होती है। आरम्भ में हरिवाहन उसे पहचान नहीं पाता और अपना परिचय देकर उससे उसका परिचय पूछता है परन्तु तिलकमञ्जरी उसे देखकर घबरा जाती है और बिना उत्तर दिए वहाँ से चली जाती है। उसके जाने के पश्चात् हरिवाहन को तिलकमञ्जरी का वह चित्र यदि आ जाता है और अदृष्टपार नामक वह सरोवर भी याद आ जाता है। थोड़ा सा सोच-विचार और तर्क वितर्क करने के पश्चात् वह इस निर्णय पर पहुँच जाता है