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तिलकमञ्जरी में रस
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को अपने अन्तर्मन में अनुभव करता है। प्रिय से विरहित तिलकमञ्जरी और मलयसुन्दरी की अन्तर्दशा व अवस्थाओं को भी धनपाल ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक संयोजित किया है। तिलकमञ्जरी कथा से विप्रलम्भ शृङ्गार के उदाहरण प्रस्तुत हैं -
सर्वप्रथम विप्रलम्भ शृङ्गार की अभिव्यञ्जना उस समय हुई है जब गन्धर्वक के द्वारा बनाए गए तिलकमञ्जरी के चित्र को हरिवाहन देखते हैं और उसके अनिन्द्य सौन्दर्य को देखकर उस पर आसक्त हो जाते हैं
तत्क्षणमेव विस्तारिते पुरस्तात् तत्र (चित्रपट) निहितदृष्टिरत्युत्कृष्टरूपां रूपिणीमिव भगवतो मन्मथस्य जयघोषणामुदारवेशसविशेषचारुगात्री मचिरप्राप्तयौवनां कन्यकारूपधारिणीमेकां चित्रपुत्रिकां ददर्श। विमदर्श चादृष्टपूर्वाकृतिविशेषदर्शनदूरविकासत्तारया दृशा त्रिभुवनातिशायिनीमस्याः शरीरवयवसमुदायचारुतामतिचिरम्। अनुपरतकौतुकश्च मुहुः केशपाशे, मुहुर्मुखशशिनि, मुहुरधरपत्रे, मुहुःकण्ठकन्दले, मुहुः स्तनमण्डले, मुहुर्मध्यभागे मुहुर्नाभिचक्राभोगे, मुहुर्जघनभारे, मुहुरूरुस्तम्भयोः, मुहुश्चरणवारिरुहयोः, कृतारोहवरोहया दृष्ट्या तां व्याभावयत्। पृ. 162
यहाँ तिलकमञ्जरी के प्रति हरिवाहन के मन में प्रेमाङ्कुर फूट पड़ता है। जब गन्धर्वक तिलकमञ्जरी के वंश आदि का परिचय देता है, तब हरिवाहन उसे पाने के लिए लालायित हो उठता है। गन्धर्वक भी हरिवाहन के मनः स्थिति को समझ लेता है और उसकी सहायता के लिए पुनः आने का वायदा करके चला जाता है, परन्तु किसी विपत्ति के कारण लौट नहीं पाता। गन्धर्वक के जाने के बाद तिलकमञ्जरी के लिए उसकी मन:स्थिति को देखिए। यहाँ से विप्रलम्भ शृङ्गार की रसधारा फूट पडती है। विप्रलम्भ शृङ्गार की इस अवस्था को ही काव्यशास्त्रियों व आचार्यों ने अभिलाष विप्रलम्भ या पूर्वराग विप्रलम्भ कहा है -
तस्य (वासभवनस्य) चैकदेशे निवेशितमायतविशालं ... अव्याकुलेन चेतसा संस्मृत्य गन्धर्वकालापमुपजातविस्मयश्चिन्तिवान्- अहो काप्यद्भुता तस्याश्चक्रसेनदुहितुः शरीरावयवशोभासंपत्तिर्यस्मात्रिभुवनातिशायिरूपापि तत्प्रतिकृतिरियं चित्रपटगता रूपलव इति निवेदिता तेन विद्याधरदारकेण। यदि च सत्यमेव तस्यात्रस्तमृगदृशस्तादृशं रूपं ततो जितं जगति विद्याधरजात्या। न जाने कस्य संचितकुण्ठतपसः कण्ठकाण्डे करिष्यति पतिष्यन्त्यास्तद्भुजल तायाः