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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
मलयसुन्दरी के आश्रम में पुनः मिलन ने उसे रोमाञ्चित कर दिया है। उसको देखकर उसकी मनः स्थिति का ज्ञान सहज ही हो जाता है। प्रिय उसके समक्ष बैठे हैं इसलिए संकोच और लज्जा का अनुभव भी हो रहा है तथापि मर्यादा में रहकर उसे अपने अतिथि का सत्कार भी करना है। वह भरसक प्रयत्न करते हुए अपनी भावनाओं और मन को वश में करके हरिवाहन को पान देकर उसका सत्कार करती है। इस प्रकार की मन:स्थिति को व्यञ्जित करना सरल कार्य नहीं है परन्तु धनपाल ने अत्यन्त सहज ढंग से इससका चित्रण कर अपने काव्य कौशल का परिचय दिया है।
विप्रलम्भ शृङ्गार
प्रियतम से प्रियतमा के वियोग को ही विप्रलम्भ कहते हैं। जिस प्रकार सोना आग पर तपाने से निखर जाता है, उसी प्रकार प्रेम भी वियोग रूपी आग पर तपकर निखरता है। जिस प्रकार भूख से व्याकुल व्यक्ति को भोजन अत्यधिक आनन्दित करता है। उसी प्रकार लम्बे वियोग के पश्चात् मिलन का आनन्द विलक्षण ही होता है। प्रेम विरह वेदना से तपकर ही अपने सच्चे स्वरूप को प्राप्त करता हैं। मेघदूत का यक्ष तो प्रियतमा के विरह से दु:खी होकर अचेतन मेघ को दूत बनाकर अपना संदेश अपनी प्रियतमा को प्रेषित करता है।" जो विरह वेदना से जितना पीड़ित होता हैं, उसे उतना ही अधिक मिलन सुख प्राप्त होता है। विरह की तपन भी अन्ततोगत्वा आनन्द को प्रदान करती है अतः वह प्रेम को कम नहीं करती अपितु उसे और बढ़ाती है। इसी कारण से काव्यकार अपने काव्य में सम्भोग शृङ्गार को ईप्सिततम् बनाने के लिए काव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार की हृदयस्पर्शी अभिव्यंजना कराते हैं। महाकवि धनपाल ने भी अपनी काव्यकृति तिलकमञ्जरी में संयोग शृङ्गार के परिपाक के लिए विप्रलम्भ शृंगार का सफल संयोजन किया है।
धनपाल ने हरिवाहन के तिलकमञ्जरी और समरकेतु के मलयसुन्दरी से वियोग की अभिव्यञ्जना इतनी सफलतापूर्वक करवाई है कि सहृदय उनकी वेदना
14. न विना विप्रलम्भेन सम्भोगः पुष्टिमश्नुते ।
कषायिते हि वस्त्रादौ भूयान् रोगोऽनुषज्यते ।। स. क., 5/52 15. कामार्त्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेताचेतनेषु । मेघ., पूर्वमेघ-5