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तिलकमञ्जरी में रस रहा है। यहाँ पर तारक और प्रियदर्शना परस्पर आलम्बन विभाव हैं। स्पर्श (पाणीग्रहण) उद्दीपन विभाव है। विक्षेप और कम्पन अनुभाव तथा लज्जा, रोमाञ्च आदि सञ्चारी भाव हैं।
___ मलयसुन्दरी के आश्रम में हरिवाहन और तिलकमञ्जरी की भेंट संयोग शृङ्गार का उत्तम उदाहरण है। इससे पूर्व इलाइची लता मण्डप में हरिवाहन को देखकर तिलकमञ्जरी उसमें आसक्त हो जाती है और जब उसे यह ज्ञात होता है कि हरिवाहन मलयसुन्दरी का अतिथि बनकर उसके आश्रम में रह रहा है, तो वह उससे मिलने के लिए वहाँ जाती है। मलयसुन्दरी जब उसे हरिवाहन का परिचय देती है तो तिलकमञ्जरी के तृषार्त चक्षु प्रिय दर्शन के अवसर का लाभ उठाने लगते है -
सलीलपरिवर्तितमुखी तत्क्षणमेव सा तीक्ष्णतरलायतां बाणवलीमिव कुसुमबाणस्य, विवृत्तवालशफरस्फारसंचारां तरङ्गमालामिव शृंङ्गारजलधेः, धवलीकृतदिगन्तां ज्योत्स्नामिव लावण्यचन्द्रोदयस्य, धैर्यध्वंसकारिणीमुल्कामिव रागहुतभुजः संभ्रमोल्लासितैकभूलतामाज्ञामिव यौवनयुवराजस्य, मुकुलितां मदेन, विस्तारितां विस्मयेन, प्रेरितामभिलाषेण, विषमितां वीडया, वृष्टिमिवामृतस्य, सृष्टिमिवासौख्यस्य प्रकृष्टान्त:प्रीतिशंसिनीं वपुषि में दृष्टिमसृजत्। पृ. 362
तिलकमञ्जरी का हरिवाहन के प्रति प्रेम उसकी क्रियाओं से स्फुट हो रहा है। वह अपने प्रेमपात्र व अपनी अपनी सखी के अतिथि हरिवाहन की अतिथि योग्य समुचित उपचार क्रियाओं को करती है और अपने हाथ से ही उसे पान देती है। अपने प्रिय को पान देते हुए वह लजाकर अपना मुख नीचे कर लेती है -
__तिलकमञ्जरी तु किञ्चिदुपजातवैलक्ष्या क्षणमधोमुखीभूय विहिताकार संवृतिरध:कृत्य साध्वसमवलम्ब्य धैर्यमुपसार्य विभ्रमं निरस्य मनसिजोल्ला समवधार्य दूरारूढ़मात्मानः प्रभुत्वमालोच्य च सतामौचित्यकारितामतिप्रागल्भ्ये वतिर्यक्प्रसारितभुजलतासरलसुकुमारारुणाङ्कलीपरिगृहितमुदधिवेलेव विद्रुमकन्दली वयितमुदग्रमभिनवं शंखमादाय ताम्बूलदायिकाकरतलादन्त:स्फुरद्भिः स्फटिकधवलैर्नखमयूखनिर्गमैर्द्विगुणीकृतान्तर्गतस्थूलकर्पूरशकलं स्वहस्तेन ताम्बूलमदात्। - पृ. 363
प्रेमानुरक्त लोगों की क्रियाएँ असाधारण हो जाती है। तिलकमञ्जरी तो इलाइची तलामण्डप में हरिवाहन को देखकर अपना सर्वस्व ही उसे दे बैठी थी।