________________
तिलकमञ्जरी में रस
_107 धनपाल ने तिलकमञ्जरी में सभी मुख्य रसों की अभिव्यञ्जना की है। काव्य किसी भी विधा में क्यों न हो, उसमें अनेक रसों का समावेश होने पर भी अङ्गी रस एक ही होता है। अन्य रस उस अङ्गी रस का अन्य प्रकार से उपकार करते है तथा सहायक रस कहलाते है। तिलकमञ्जरी का अङ्गी रस शृङ्गार है अतः शृङ्गार का सर्वप्रथम विवेचन किया जा रहा है। शृङ्गार रस शृङ्गार रस तिलकमञ्जरी का अङ्गी व प्रधान रस है। शृङ्गार का स्थायी भाव रति है। नायक व नायिका इसके आलम्बन विभाव तथा चन्द्रमा, उद्यान, चन्दन, ऋतु आदि उद्दीपन विभाव होते है। स्वेद, रोमाञ्च तथा कटाक्ष आदि अनुभाव होते है तथा उत्कण्ठा, आलस्य, हर्ष, आवेग, चपलता, उन्माद, सिहरन, लज्जा आदि व्यभिचारी भाव होते है। शृङ्गार रस के दो भेद होते हैं - सम्भोग शृङ्गार तथा विप्रलम्भ शृंगार।
एक-दूसरे के प्रेम से युक्त नायक और नायिका जहाँ परस्पर दर्शन व स्पर्शादि करते है, वहाँ सम्भोग (संयोग) शृङ्गार होता है।" परस्पर अवलोकन, स्पर्शन, आलिङ्गन, चुम्बन आदि के प्रकारों से इसके अनन्त भेद हो जाते है। इन भेदों की गणना सम्भव न हो सकने के कारण इसे एक ही गिना जाता है। जब अनुराग अति उत्कट हो परन्तु प्रिय संयोग न हो तो उसे विप्रलम्भ (वियोग) शृङ्गार कहते है।" विप्रलम्भ शृङ्गार के पाँच भेद है - अभिलाष विप्रलम्भ, ईर्ष्या विप्रलम्भ, विरह विप्रलम्भ, प्रवास विप्रलम्भ व शाप विप्रलम्भ। साहित्यदर्पणकार ने इसके चार ही भेद माने हैं।" अभिलाष विप्रलम्भ शृङ्गार वह है जब सौन्दर्य आदि गुणों के श्रवण अथवा दर्शन से नायक अथवा नायिका उसमें अनुरक्त हो गये हों, परन्तु उन्हें समागम का अवसर न प्राप्त हुआ हो अथवा समागम हो जाने के पश्चात् किसी कारणवश समागम का अभाव, विरह विप्रलम्भ शृङ्गार कहलाता है। समीप रहने पर भी किसी मान आदि के कारण समागम का अभाव, ईर्ष्या विप्रलम्भ कहलाता है। प्रवास व शाप के निमित्तवश समागम का अभाव
11. दर्शनस्पर्शनादीनि निषेवेते विलासिनौ ।
यात्रानुरक्तावन्योन्यं संभोगोऽयमुदाहृतः ।। सा. द. - 3/210 12. यत्र तु रति प्रकृष्टा नाभीष्टमुपैति विप्रलम्भऽसौ - वहीं 3/18 13. वही, 3/187