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तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य
अनुभाव कहलाता है।' ये ऐसी चेष्टाएँ होती हैं, जिनसे आश्रय का मनोगत भाव अभिव्यक्त होता है। अनुभाव तीन प्रकार से अभिव्यक्त होते हैं - कायिक, वाचिक, और सात्त्विक । कटाक्ष आदि आङ्गिक चेष्टाएँ कायिक अनुभाव कहलाती हैं। वाणी द्वारा प्रकाशित चेष्टाएँ वाचिक अनुभाव कहलाती हैं तथा शरीर में अनायास उत्पन्न होने वाले भावों को सात्विक अनुभाव कहते हैं।
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मन की अस्थिर चित्त वृत्तियों को व्यभिचारी भाव या सञ्चारी भाव कहते हैं। जिस प्रकार महासागर में लहरें उठती - गिरती रहती है उसी प्रकार सञ्चारी भाव स्थायी में उठते-गिरते रहते है। विविध रसों के अनुकूल होकर संचरण करने के कारण इन्हें सञ्चारी भाव कहा जाता है। इनकी संख्या 33 मानी गई है।
स्थायी भाव ऐसे भाव होते हैं, जिनको विरुद्ध या अविरुद्ध भाव न दबा सकें और जो रसास्वादन पर्यन्त विद्यमान रहे। यह चित्त का स्थिर विकार होता है। प्रत्येक रस का एक ही स्थायी भाव होता है । स्थायी भाव ही रस का मूल है, जो सामाजिक के हृदय में वासनात्मक रूप में अवस्थित रहता है तथा काव्य में रसानुकूल विभावादि सामग्री को पाकर रस रूप में परिणत हो जाता है और सामाजिक को अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है। आचार्य भरत ने आठ स्थायी भावों का वर्णन किया हैं क्योंकि नाट्य में आठ रसों को स्वीकार किया गया है - रति, हास, शोक, क्रोध उत्साह, भय, जुगुप्सा और आश्चर्य । इनसे सामाजिक को क्रमशः शृङ्गार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, विभत्स और अद्भुत रस की अनुभूति होती है। परवर्ती आचार्यों जैसे आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ प्रभृि आचार्यों ने इन आठ रसों के साथ शान्त को नौवाँ रस माना है तथा निर्वेद को इस रस का स्थायी भाव।' इसलिए आचार्य मम्मट ने ग्रन्थारम्भ में ही कवि की सृष्टि को नौ रसों से युक्त कहा है" और ये रस केवल आनन्दमय ही होते है।
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(क) उदबुधं कारणैः स्वैः स्वैर्बहिभावं प्रकाशयन् ।
लोके यः कार्यरूपः सोऽनुभावः काव्यानाट्ययो: ।। सा. द. 3 / 132
(ख) रस सूत्र की व्याख्याएँ - डॉ. राजेन्द्र कुमार, पृ. 9 अविरुद्धा विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः ।
आस्वादाङ्करकन्दोऽसौ भावः स्थायीति संमतः ।। वही - 3/174 रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा ।
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जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावाः प्रकीर्तिताः ।। ना. शा. 6/17 निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः । का. प्र., 4/47 नियतिकृतनियमरहितां ह्रलादैकमयीमनन्यपरतन्त्राम्। नवरसरुचिरां निर्मितिमादधती भारती कवेर्जयति ।। वही, 1/1