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तिलकमञ्जरी में रस
105 कार्य और सहकारी पृथक-पृथक् है तथापि इनकी प्रतीति-सामूहिक रूप से होती है। जिस प्रकार प्रपाणक रस में अनेक प्रकार के पृथक्-पृथक् स्वाद वाले तत्त्व होते हैं, परन्तु उनका सामूहिक स्वाद विलक्षण होता है उसी प्रकार रस प्रतीति के समय विभाव, अनुभाव व व्याभिचारी भावों की प्रतीति पृथक् रूप में न होकर सामूहिक रूप में होती है।
किसी तत्त्व के सम्पर्क में आने पर चित्त मे जो प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, उसे भाव कहते हैं अर्थात् चित्त के विकार को 'भाव' की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। ये चार प्रकार के होते हैं- विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव तथा स्थायी भाव। रस के प्रसङ्ग में मन के विकारों (विभाव, अनुभाव, व्याभिचारी व स्थायी भाव) का संक्षिप्त विवेचन अपेक्षित है जिससे शोध प्रबन्ध के अध्ययन कर्ताओं को किसी प्रकार के व्यवधान का सामना करना पड़े। प्रत्येक रस के पृथक्-पृथक भाव होते है, उनका वर्णन उस-उस रस के प्रसङ्ग में किया जाएगा।
विभाव रसानुभूति के कारण कहलाते हैं। ये स्थायी भावों के उद्बोधक होते है। विभाव दो प्रकार के होते हैं - आलम्बन विभाव और उद्दीपन विभाव। जिसका आश्रय लेकर रस की निष्पत्ति होती है, उसे आलम्बन विभाव कहते हैं। उदाहरणार्थ नायिका को देखकर नायक के मन में और नायक को देखकर नायिका के मन में रति उत्पन्न होती है अतः ये आलम्बन विभाव है। इन को देखकर ही सामाजिक के हृदय में रस का संचार होता है। प्रत्येक रस के आलम्बन पृथक्-पृथक् होते हैं अतः इनकी संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती। जो कारण स्थायी भाव को उद्दीप्त करते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं। देश, काल आदि के अनुसार प्रत्येक रस के उद्दीपन विभाव भी अलग-अलग होते हैं। यथा चाँदनी, उपवन, पुष्प, एकान्त आदि रति के उद्दीपन विभाव है।
हृदयस्थित भावों का अभिव्यक्त बाह्य रूप ही अनुभाव है। विभाव के अनन्तर होने के कारण इन्हें अनुभाव कहा जाता है। अनु पश्चाद् भवन्ति इति अनुभावाः। आलम्बन और उद्दीपन विभावों के अनन्तर आङ्गिक वाचिकादि अभिनयों से उबुध रति आदि का बाहर प्रकाशित रूप ही काव्य और नाट्य में
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रत्यायुद्बोधका लोके विभावाः काव्यनाट्ययोः - सा. द., 3/29 उद्दीपनविभावास्ते रसमुद्दीपयन्ति ये । वही, 3/131