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________________ 104 तिलकमञ्जरी में काव्य सौन्दर्य रस काव्य रस में को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। रस के बिना काव्य में सौन्दर्य नहीं रहता क्योंकि, काव्य में रस का ही आस्वादन होता है। रस का व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी इसी तथ्य को प्रकट करता है - 'रस्यते आस्वाद्यते इति रसः' अर्थात् जिसका आस्वादन किया जाए या जो आस्वादित हो, वही रस है काव्य में रस आस्वादन जन्य आनन्द का वाचक है। रस इन्द्रियों का विषय न होकर हृदय का विषय है। मम्मट ने रसास्वादन से उत्पन्न परम आनन्द को काव्य प्रयोजनों में सर्वश्रेष्ठ माना है।' रस में स्थायी भावों का ही आस्वादन होता है। विभावादि भावों से परिपुष्ट होकर स्थायी भाव रस रूप में आस्वादित होता है। रस सदैव व्यंग्य रूप होता है। विभावादि के कथन से ही रस की अनुभूति होती है। आचार्य मम्मट के अनसार लोक मे रति आदि स्थायी भाव के जो कारण कार्य और सहकारी होते हैं, वे ही काव्य या नाट्य में विभाव, अनुभाव और व्याभिचारी भाव कहलाते है। उन विभावादि से व्यक्त वह रति आदि रूप स्थायी भाव रस कहलाता है। आचार्य भरत का मत है कि जिस प्रकार नाना प्रकार के व्यञ्जनों से सुसंस्कृत अन्न को ग्रहण कर पुरुष रसास्वादन करता हुआ प्रसन्नचित होता है, उसी प्रकार अनेक भावों तथा अभिनयों द्वारा व्यञ्जित वाचिक, आंगिक एवं सात्विक भावों से युक्त स्थायी भाव का आस्वादन कर सहृदय प्रेक्षक आनन्द प्राप्त करते हैं।' साधारण शब्दों में आलम्बन के द्वारा उद्भूत होकर उद्दीपन विभाव द्वारा उद्दीप्त होकर, अनुभाव के द्वारा प्रतीति योग्य बनकर व व्याभिचारी भावों से परिपुष्ट होकर स्थायी भाव रस रूप में आस्वादित होता है। रसानुभूति में कारण, 2. सकलप्रयोजनमौलिभूतं समनन्तरमेव रसास्वादन-समुद्भूतं विगलितवेद्यान्तरमानन्दम्। का.प्र.,पृ.10. कारणान्यथ कार्याणि सहकारिणि यानि च। रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्न नाट्यकाव्ययो : ।। विभावानुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः। व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः।। वही, 4/27, 28 यथा हि नानाव्यञ्जनसंस्कृतमन्नं भुजाना रसानास्वादयन्ति सुमनसः पुरुषाः हर्षादीश्चाधिगच्छन्ति तथा नानाभावाभिनयव्यञ्जितान् वागङ्गसत्त्वोपेतान् स्थायीभावानास्वादयन्ति सुमनसः प्रेक्षका हर्षादींश्चाधिगच्छन्ति । ना. शा., 6/32, 33
SR No.022664
Book TitleTilakmanjari Me Kavya Saundarya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijay Garg
PublisherBharatiya Vidya Prakashan2017
Publication Year2004
Total Pages272
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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