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तिलकमञ्जरी के पात्रों का चारित्रिक सौन्दर्य
का विषैला फल खा लेती है। इस प्रकार अपने प्रेम की रक्षा के लिए यह अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी तत्पर रहती है। निश्चय ही इसका प्रेम सभी के लिए अनुकरणीय है। धर्मपरायणा : इसकी धर्मपरायणता का प्रथम परिचय उस समय मिलता है जब हरिवाहन इसे अदृष्टपार सरोवर के तटवर्ती जिन मंदिर में इसे पूजा करते हुए देखता है। यह पूर्ण तल्लीनता से धार्मिक कार्यों में संलग्न रहती है। विद्याधर भगवान महावीर जिन के अभिषेकोत्सव में नृत्य करवाने के लिए इसका अपहरण करते है। जब इसे अपने अपहरण कारण ज्ञात होता है, तो यह पूरी श्रद्धा व भक्ति से नृत्य करती है और अपने नृत्य से विद्याधरेन्द्र विचित्रवीर्य को भी चकित कर देती है। समरकेतु से इसका प्रथम मिलन भी जिनायतन की प्राचीर पर भ्रमण करते हुए ही होता है। अपने प्रियतम समरकेतु से पुनर्मिलन की आशा में यह अदृष्टपार सरोवर के तटवर्ती आश्रम में निवास करती है तथा मुनिजनोचित क्रियाओं व धार्मिक क्रियाकलापों को करती हुई दिन व्यतीत करती है। गन्धर्वदत्ता यह विद्याधरेन्द्र विचित्रवीर्य की पुत्री तथा पत्रलेखा की अनुजा हैं। इसका विवाह काञ्ची नरेश कुसुमशेखर से हुआ है जिसने इसे अपनी पटरानी बना लिया है। मलयसुन्दरी इसी की पुत्री है।
इसका जीवन अनेक आरोह-अवरोहों से भरा हआ है। जब यह दस वर्ष की थी तब नृत्यकला में रुचि होने के कारण इसके नाना इसे अपनी नगरी वैजयन्ती ले गये थे। वहाँ जितशत्रु नामक शत्रु सामन्त के आक्रमण के समय यह अपने स्वजनों से वियुक्त हो गई। इसका लालन-पालन प्रशान्त वैर तपस्वी के आश्रम में हुआ।
121. ति.म., पृ., 334-335 122. अपश्यं च तत्राष्टादशवर्षदेशीयामचिस्नापितस्य ...... युगादि जिनबिम्बस्य पुरतो
नातिनिकटे समुपविष्टामभिमुखीमबद्धपद्मासनामतिस्थिरतया ..... अखिल
लोकत्रयातिशायिरूपां तापसकन्यकाम्। वही, पृ. 255 123. वही, पृ. 270 124. वही, पृ. 276 125. अकरोच्च तस्याः कनकवेत्रच्छत्रचामरादिराज्यालंकारसूचितमहोदयं महादेवीपट्टबन्धम् ..।
वही, पृ. 343 126. वही, पृ. 342