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तिलकमञ्जरी के पात्रों का चारित्रिक सौन्दर्य संस्कारों के कारण ही इस जन्म में यह समरकेतु को देखते ही उसके प्रेमपाश में बँध जाती है। यह सच्ची सखी और बुद्धिमती है। तिलकमञ्जरी भी अपने कार्यों में इससे परामर्श लेती है और उन्हें मानती भी है। सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति : मलयसुन्दरी अनिन्द्य सौन्दर्य की स्वामिनी है। इसके अतुलनीय सौन्दर्य को देखते ही समरकेतु कामविकार से पीड़ित हो जाता है। वह निर्निमेष नेत्रों से इसके रूप राशी का पान करता है। हरिवाहन भी इसके सौन्दर्य की प्रशंसा के विषय में दो पद्य कहता है। उसके अनुसार मलयसुन्दरी नेत्र नीलकमल को पत्र समर्पित करते हैं। उसके स्तनों का विस्तार हाथी के मस्तक का तिरस्कार करता है। कपोल स्थल हाथी के दांतों की शोभा का अनुकरण करते है। और मुख की शोभा चन्द्रमण्डल को दूषित करती है।” हरिवाहन पुनः कहता है कि कमलदल को तिरस्कृत करने वाले मलयसुन्दरी के नेत्र व पूनम के चाँद के समान कांति वाले मुखारविन्द की शोभा से तिरस्कृत, अपने नेत्रों और छवि को देखकर तथा लज्जा से व्यथित होकर मृगों और कमलों ने क्रमशः जनसंचार से रहित वनों व जल में निवास कर लिया। ललितकला कुशला : मलयसुन्दरी नाट्यशास्त्र, गायन, वादन आदि ललित कलाओं में प्रवीण है। यह नृत्यकला में विशेषरूप से पारङ्गत है। नृत्य के चमत्कारी प्रयोग इसने अपनी माता से सीखे है।'' जो स्वयं विद्याधरराज दुहिता गन्धर्वदत्ता है। गन्धर्वदत्ता ने इसने भी ये प्रयोग विद्याधरलोक में सीखे थे।"" जिनेन्द्र के अभिषेकोत्सव के अवसर पर इसकी आकर्षक नृत्य मुद्राओं तथा नाट्य प्रयोगों को देखकर विद्याधर सम्राट विचित्रवीर्य भी चमत्कृत हो जाते हैं और इससे इसके नृत्य शिक्षक के विषय में पूछते है। उदार हृदया : इसका हृदय बहुत विशाल है। यह न केवल सामान्य जनों अपितु वृक्षों और पक्षियों पर भी स्नेह रखती है। इसे अपने गृहोद्यान के वृक्षों, शुकशावकों आदि से अत्यधिक प्रेम है। आत्मघात करने से पहले यह अपने गृहोद्यान के वृक्षों
107. दत्तं पत्रं कुवलयततेरायतं चक्षु ....... विलसितैर्दूषयत्यास्य लक्ष्मीः । ति. म., पृ. 255-56 108. अस्या नेत्रयुगेन नीरज..... कमलैर्मन्ये वनेषु स्थितिः। वही, पृ. 256 109. उचितसमये च यथाशक्तयाधीतराजकन्यकोचितविद्या सोपनिषदि नाट्यवेदे गीतवाद्यादिषु
च कलासु कृतपरिचया ..........। वही, पृ. 264 110. ये पुनरिहातिरमणीयतया विशेषतः प्रतिपन्नास्तातेन ते स्वयं मया
नृत्यन्तीमम्बामवलोकयन्त्यापृच्छन्तया च तामनवरतमवगताः। वही, पृ. 270-71 111. वही, पृ. 271