SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२३ नेमिनिर्वाण का संवेद्य एवं शिल्प : रस भी उक्त अंश को प्रक्षिप्त मानते हुए ही उस पर टीका लिखी है । आचार्य उद्भट (८ वीं शताबदी ई०) ने शान्त रस को स्पष्ट रूप से रस स्वीकार करते हुए नाट्य में नौ रसों की मान्यता को प्रतिपादित किया है । इस आधार पर यही माना जाता है कि सर्वप्रथम उद्भट ने ही शान्त रस की मान्यता को स्थिर किया है, परन्तु अलंकार शास्त्र के विशेष अन्वेषण से पता चलता है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में जैनाचार्य आर्यरक्षित ने अपने प्राकृत ग्रंथ “अनुयोगद्वारसूत्र” में प्रसंगतः एक से दस संख्या तक के नामों का निर्देश करते हुए नव संख्यक रसों का उल्लेख किया है तथा प्रशान्त (शान्त) रस का भी विवेचन किया है । अतः उद्भट के पूर्व भी प्रशान्त (शान्त) रस की मान्यता थी, इस विषय में शंका का कोई स्थान नहीं है। कविवर बनारसीदास (१७ वीं शती) ने नवरसों को भवरूप और भावरूप अर्थात् लौकिक और पारमार्थिक दो तरह का मानते हुए दोनों ही तरह के स्थायीभावों का भी वर्णन किया है । उन्होंने शान्त का भवरूप (लौकिक) स्थायीभाव ("माया में अरुचि” और भाव रूप (पारमार्थिक) स्थायीभाव "ध्रुव वैराग्य” माना है ।1) कविवर बनारसीदास की यह मान्यता साहित्य-जगत् के लिए नई देन होने से अतीव महत्त्वपूर्ण है। आचार्य मम्मट ने शान्त रस का उदाहरण इस प्रकार प्रस्तुत किया है :१. अभिनवभारती, षष्ठ अध्याय २. श्रृंगारहास्यकरुपद्रवीरभयानकाः । वीभत्सा तशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृताः ।। - काव्यालंकारसारसंग्रह (बम्बई १९१५), पृ० ११ ३. अनुयोद्वारसूत्र प्रथम भाग, पृ० ८२८ (ज्ञातव्य है कि आर्यरक्षित ने भयानक रस के स्थान पर वीडनक नामक रस माना सो पसंतत्तिणावत सोमदिदी तीयभाग, पृ० ८ ४. निदोसमपसमाहपसंभवों जे पसंभावेणं । अविकारलक्खणो सो रसो पसंतोत्ति णायव्यो ।। पसंतो रसो जहा सम्भावणिविगारं उवसंतपसंत सोमदिदठीअं । ही जह मुणिणो सोसइ मुहकमलं पीवरसिरीयं ।।" - वही, द्वितीयभाग, पृ०८ ५. “सोभामै सिंगार बसै वीर पुरुषारथमैं, कोमल हिएमैं करुना बखानिये। आनंदमै हास्य रूंडमुंडमैं विराजै रूद्र, वीभच्छ तहाँ जहाँ गिलानि मन आनिये । चिंतामैं भयानक अथवाहतामैं अद्भुत, माया की अरूचि तामैं सान्त रस मानिये। एई नव भव रूप एई भाव रूप इनको विलेछिन सुद्रष्टि जागैं जानिये ।। गुण विचार सिंगार वीर उद्यम उदार रुख । करुण समरस रीति, हास्य हिरदै उछाह सुख ।। अष्टकरम दलमलन रुद्र बरतै तिहि धानक । तन विलेछ बीभच्छ दुदमुख दसा भयानक ।। अद्भुत अनन्त बल चितवन सांत सहज वैराग ध्रुव । नवरस विलास परगास तव जब सुबोध घट प्रकट हुव ।। - समयसार नाटक सर्ववशुद्धिद्वार १३५,१३६, पृ० ३०७-३०८
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy