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________________ १२२ तथा इसका स्वाद ब्रह्मास्वाद का सहोदर है । इस प्रकार यह सुनिश्चित कहा जा सकता है सहृदयव्यक्तियों के हृदय में उत्पन्न होने वाला तत्त्व है शान्त रस : मान्यता और स्थान : ।” शब्द और अर्थ काव्य की काया है और रस काव्य की आत्मा । लोक में रति आदि स्थायीभावों के जो कारण कार्य और सहकारी - कारण होते हैं, वे यदि नाट्य या काव्य में प्रयुक्त होते हैं तो क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव कहे जाते हैं और विभाव आदि से अभिव्यक्त स्थायीभाव ही रस कहलाता है । रसाभिव्यक्ति की इस प्रक्रिया को अजितसेन ने बड़े ही सुन्दर उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किया है : “नवनीतं यथाज्यत्वं प्राप्नोति परिपाकतः । स्थायिभावो विभावाद्यैः प्राप्नोति रसतां तथा । ३ अर्थात् - जिस प्रकार परिपाक हो जाने से नवनीत ही घृत रूप में परिणत हो जाता है, उसी प्रकार स्थायिभावविभावादि के द्वारा रस स्वरूपता को प्राप्त हो जाता है I श्रीमद्वाग्भटविरचितं नेमिनिर्वाणम् ः एक अध्ययन : वस्तुतः काव्य के पढने या सुनने से जो आनन्द की प्राप्ति होती है, वह रस के द्वारा ही होती है। इन रसों की संख्या सामान्यतः नौ मानी है । १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, और ९. शान्त । " रस एक अलौकिक वस्तु है । जो 1 1 श्रृंगार आदि आठ रसों की मान्यता निर्विवाद है । किन्तु शान्त रस के सम्बन्ध में आलंकारिकों में मतभेद दिखाई पड़ता है । अलंकारशास्त्री भरतमुनि को ही रस- सम्प्रदाय का आदि प्रवर्तक स्वीकार करते हैं । किन्तु यह मान्यता सर्वसम्मत और निर्विवाद नहीं मानी जा सकती, क्योंकि आचार्य राजशेखर ने भरतमुनि का रूपकप्रणेता के रूप में और नन्दिकेश्वर नामक किसी विशिष्ट आचार्य का रस-सम्प्रदाय के प्रणेता के रूप में उल्लेख किया है। 1 १. साहित्य दर्पण, ३/२-३ २. कारणान्यथकार्याणि सहकारीणि यानि च । शान्त रस का प्रतिपादन भरतमुनि ने किया है या नहीं, यह विवादास्पद है। क्योंकि नाट्यशास्त्र के गायकवाड़ ओरएण्टल सीरीज बड़ौदा वाले संस्करण को छोड़कर प्रायः अन्यत्र रस-विवेचन वाला अंश नहीं मिलता और नाट्यशास्त्र के प्रसिद्ध व्याख्याकार अभिनवगुप्त ने रत्यादेः स्थायिनो लोके तानि चेन्नाट्यकाव्ययोः ।। विभावानुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः । व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः ।। काव्यप्रकाश, ४/२७-२८ ३. अलंकारचिन्तामणि, ५ / ८४ ४. रूपकनिरूपणीयं भरतः रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वरः । काव्यमीमांसा, अ० १
SR No.022661
Book TitleNemi Nirvanam Ek Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAniruddhakumar Sharma
PublisherSanmati Prakashan
Publication Year1998
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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