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________________ वर्धमानचरितम् मन्दानिलोल्लासितसौधनद्वध्वजोत्करैर्नाकभुवः समन्तात् । उद्धीकृतात्मीयकरैः स्वशोभामाहूय संदर्शयतीव नित्यम् ॥११ प्रसिद्धमानेन विरोधर्वाजना प्रमिण्वते यद्वणिजो निकामम् । तत्ताकिका वा सदसद्विचाराद्वस्तु प्रयत्नोपहितस्ववाचः ॥ १२ यत्राकुलीनाः सततं हि तारा दोषाभिलाषाः पुनरेव घूकाः । सद्वृत्तभङ्गोऽपि च गद्यकाव्ये रोधः परेषां सुजनस्य चाक्षे ॥ १३ दण्डो ध्वजे सन्मुरजे च बन्धो वराङ्गनानां चिकरेषु भङ्गः । त्पञ्जरेष्वेव सदा विरोधो गतावहीनां कुटिलत्वयोगः ॥१४ वायु से फहराती भवनों पर लगी ध्वजाओं के समूह से जो नगरी ऐसी जान पड़ती है मानों ऊपर उठाये हुए अपने हाथों द्वारा सब ओर से स्वर्ग की भूमियों को बुलाकर निरन्तर उन्हें अपनी शोभा ही दिखा रही हो ॥। ११ ॥ प्रयत्नपूर्वक अपने वचनों का प्रयोग करने वाले लोकप्रिय वचन बोलने वाले (पक्ष में युक्तिसंगत वचन बोलनेवाले) जहाँ के वणिक् उत्तम नैयायिकों के समान विरोध से रहित - हीनाधिकता के दोष से रहित अथवा विरुद्ध आदि हेत्वाभासों से रहित प्रसिद्ध मान - क्रेता और विक्रेता में प्रसिद्ध प्रस्थ आदि प्रमाण के द्वारा ( पक्ष में वादी और प्रतिवादी में प्रसिद्ध अनुमान आदि प्रमाण के द्वारा) सदसद्विचारात् - अच्छे-बुरे का विचार होने से ( पक्ष में अस्ति पक्ष और नास्ति पक्ष का विमर्श होने से ) वस्तु - नमक- तेल आदि पदार्थों को ( पक्ष में जीवाजीवादि तत्त्वों अथवा द्रव्य-गुण-कर्म सामान्य आदि पदार्थों को) अच्छी तरह प्रमाण का विषय करते हैं - तोलते हैं ( पक्ष में जानते हैं ) || १२ || जिस नगरी में निश्चय ही निरन्तर तारा - नक्षत्र ही अकुलीन - आकाश में लीन थे वहाँ के मनुष्य अकुलीन - नीच कुलोत्पन्न - असभ्य नहीं थे । उल्लू ही दोषाभिलाषदोषा-रात्रि के चाहनेवाले थे वहाँ के मनुष्य दोषाभिलाष - दुर्गुणों के इच्छुक नहीं थे । सद्वृत्तभङ्गसमीचीन छन्दों का अभाव गद्य काव्य में ही था वहाँ के मनुष्यों में सद्वृत्तभङ्ग सदाचार का विनाश नहीं था और दूसरों का रोध - नियन्त्रण सत्पुरुषों की इन्द्रियों में ही था अर्थात् सत्पुरुष ही अपनी इन्द्रियों को अन्य पदार्थों में जाने से रोकते थे वहाँ के मनुष्यों में दूसरों का रोध - नियन्त्रण नहीं था ॥ १३ ॥ जिस नगरी में दण्ड - आधारभूत काष्ठयष्टि ध्वजा में ही थी वहाँ के मनुष्यों में दण्डजुर्माना नहीं था । बन्ध — बन्धरूप चित्रकाव्य की रचना सब मुरज - उत्तम मुरजाकार लिखे जानेवाले विशिष्ट श्लोक में ही थी वहाँ के मनुष्यों में बन्ध-रज्जु आदि से होनेबाला बन्धन नहीं था । भङ्ग — कुटिलता — घुँघुरालापन उत्तम स्त्रियों के केशों में ही था वहाँ के मनुष्यों में भङ्गपराजय नहीं था । विरोध - वि- तोता आदि पक्षियों का रोध - रोकना सत्पञ्जरों - उत्तम पिंजड़ों में ही था वहाँ के मनुष्यों में विरोध - विद्वेष नहीं था और कुटिलत्व योग — टेढ़ी चाल का संयोग सदा साँपों में ही था वहाँ के मनुष्यों में कुटिलत्वयोग - मायाचार का संयोग नहीं था ।। १४ ।। तदनन्तर १. मन्दानिलोल्लसितसोध शिरः प्रणद्ध ब० । २. प्रसिद्ध नाविरुद्धेन मानेनाव्यभिचारिणा । वणिजस्ताकिकाश्चापि यत्र वस्तु प्रमिण्वते ॥ १४२ ॥ — चन्द्रप्रभ० सर्ग २ ३. वस्तु प्रयत्ना हि यतः स्ववाचा म० । ४. न गद्यकाव्य म० । ५. भङ्गः कचेषु नारीणां न व्रतेषु तपस्विनाम् ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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