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________________ पंचमः सर्गः विषानलोद्रेक करालभोगा यस्मिन्भुजङ्गाः परितो भ्रमन्तः । गरुन्मणिस्फीतमरीचिजाल संस्पर्शतस्त्यक्त विषा भवन्ति ॥६ श्रेण्यामपाच्यामलकाभिधाना पुरी धरायास्तिलकायमाना । तत्रोत्सवातोद्यसुगीतनादैरापूरिता भात्यमरावतीव ॥७ महाशया धीरतरा गभीरा सत्त्वाधिका सत्पुरुष । ब्धितुल्या । प्रथीयसी यत्परिखा चकास्ति भङ्गप्रचारैः परिपूरिताशा ॥८ सोलो विशालः स्फुरदंशुजालः परैरभेद्यो निरवद्य मूर्तिः । सतीजनोरः स्थलसाम्यमाये पयोधरालीढसदम्बरश्रीः ॥९ यैद्गोपुराग्रस्थितसालभञ्जी कोटयन्तरप्रान्तमुपेत्य सम्यक् । विलीयमाना शरदभ्रमाला सदुत्तरीयद्युतिराविभाति ॥ १० कुछ भी नहीं ॥ ५ ॥ विषरूपी अग्नि की तीव्रता से जिनके फन अत्यन्त भयंकर हैं ऐसे चारों ओर घूमते हुए सर्प, जिस पर्वत पर गरुड़मणियों की विस्तृत किरणावली के संस्पर्श से निर्विष हो जाते हैं ।। ६ ।। उस पर्वत की दक्षिण श्रेणी में पृथिवी के तिलक के समान आचरण करनेवाली एक अलका नाम की नगरी है जो उत्सव के समय बजनेवाले बाजों तथा संगीत के शब्दों से भरी हुई इन्द्र की अमरावती के समान सुशोभित होती है ॥ ७ ॥ तरङ्गों के प्रसार से दिशाओं को पूर्ण करनेवाली जिसकी विस्तृत परिखा सत्पुरुष और समुद्र के समान सुशोभित होती है; क्योंकि जिस प्रकार सत्पुरुष और समुद्र महाशय उदार अभिप्राय तथा विस्तृत मध्य भाग से युक्त होते हैं उसी प्रकार वह परिखा भी महाशय - विस्तृत मध्य भाग से संयुक्त थी । जिसप्रकार सत्पुरुष और समुद्र धीरतर - धैर्यशाली तथा मर्यादा के रक्षक होते हैं उसी प्रकार वह परिखा भी धीरतर - मर्यादा की रक्षक थी । जिसप्रकार सत्पुरुष और समुद्र गभीर - सहनशील तथा अगाध होते हैं उसी तरह वह परिखा भी गभीर — गहरी थी और जिसप्रकार सत्पुरुष तथा समुद्र सत्त्वाधिक — शक्तिसम्पन्न तथा मगरमच्छ आदि जीवों से युक्त होते हैं उसी प्रकार वह परिखा भी सत्त्वाधिक—–सत्त्व अर्थात् जीवों से अधिगत है क-पानी जिसमें ऐसा था ॥ ८ ॥ देदीप्यमान किरणों के समूह से युक्त, शत्रुओं के द्वारा अभेद्य तथा निर्दोष आकृति को धारण करनेवाला जिसका विशाल कोट सती स्त्रियों के 'वक्ष:स्थल की समानता को प्राप्त था, क्योंकि जिसप्रकार सती स्त्रियों का वक्षःस्थल पयोधरालीढसदम्बरश्रीः—स्तनों से व्याप्त समीचीन वस्त्र की शोभा से युक्त होता है उसी प्रकार कोट भी पयोधरालीढसदम्बरश्रीः- मेघों से व्याप्त उत्तम आकाश की शोभा से संपन्न था ।। ९ ।। जिस नगरी के गोपुरों के अग्रभाग में स्थित करोड़ों पुतलियों के मध्यप्रदेश को प्राप्त होकर अच्छी तरह विलीन हुई शरद् ऋतु की मेघमाला उत्तम उत्तरीय वस्त्र के समान सुशोभित होती है ॥ १० ॥ - १. यत्सालमाला स्फुरदंशुजाला पयोधरप्रोल्लसदम्बरश्रीः । वक्षःस्थलीव प्रमदाजनानां मनो जरीहति च निर्जराणाम् ।। १४ ।। —जीवन्धर० तृतीयलम्भ. २. रूप म० । ३. यद्गोपुराग्रसुत्राभमणिपुत्री विराजते । धृतसूक्ष्मदुकूलेव शारदाम्बुदमालया ।। १५ ।। ૪૭ — जीवंधर० लम्भ ३.
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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