________________
वर्धमानचरितम् पश्चमः सर्गः
उपजातिः द्वीपेऽथ जम्बूमति भारताल्ये वर्षे महीध्रो विजयार्धनामा। समुन्न नेकसुकूटरश्मिश्वेतीकृताशेषनभैःस्थलोऽस्ति ॥१ यत्रामलस्फाटिककूटकोटिस्थिता विलोक्यात्मवधः खगेन्द्राः । साम्येन मूढा विबुधाङ्गनानां प्रयान्ति केल्यां सहसा व्यतीत्य ॥२ येत्पादनीलांशु महाप्रभानिगेन्द्रशावो बहु विप्रलब्धः । गुहामुखं शङ्किमनाश्चिरेण विवेश सत्यासु गुहासु नैव ॥३ यः सानुदेशस्थितपद्मरागमरीचिमालारुणितान्तरिक्षः। संशोभते नित्यमनन्ततेजाः संध्याघनो वा नितरां मनोज्ञः ॥४ यत्सानुदेशप्रतिबिम्बितस्वं निरीक्ष्य वन्यद्विरदो मदान्धः । समेत्य वेगेन रदप्रहारैहिनस्ति को वा मदिनां विवेकः ॥५
पञ्चमसर्ग इसके बाद जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अत्यन्त उत्तुङ्ग अनेक शिखरों की किरणों से समस्त नभःस्थल को सफेद करने वाला विजयार्ध नाम का पर्वत है ॥१॥ जहाँ निर्मल स्फाटिक निर्मित कूटों के अग्रभाग पर स्थित अपनी स्त्रियों को देख कर विद्याधर राजा देवाङ्गनाओं की समानता से भ्रान्ति में पड़ जाते हैं अर्थात् उन्हें देवाङ्गनाएं समझने लगते हैं इसलिये क्रीड़ा के समय उन्हें सहसा छोड़कर चले जाते हैं ॥२॥ जिस पर्वत के प्रत्यन्त पर्वतों में लगे हुए नीलमणियों की बहुत भारी प्रभा से अनेकों बार छकाया गया सिंह का बच्चा गुहाद्वार के प्रति शङ्कित चित्त होता हुआ सचमुच की गुहाओं में भी चिरकाल तक प्रवेश नहीं करता है ।। ३ । शिखरप्रदेश में स्थित पद्मरागमणियों की किरणावली से आकाश को लाल-लाल करनेवाला, अपरिमित तेज का धारक जो पर्वत निरन्तर अतिशय मनोहर सन्ध्या के मेघ के समान सुशोभित होता है ॥ ४ ॥ जिस पर्वत के शिखरप्रदेश में प्रतिबिम्बित अपने आपको देख मदान्ध जङ्गली हाथी वेग से आकर दांतों के प्रहार से उसे मारता है सो ठीक ही है; क्योंकि मदसहित जीवों को कौन विवेक होता है ? अर्थात्
१. नभस्तलोऽस्ति ब०। २. यत्सानुनीलमणिदीप्तिपरम्पराभिः पञ्चाननस्य शिशवो बह विप्रलब्धाः ।
सत्येऽपि कन्दरमुखे परिशङ्कमाना निश्चित्य गर्जनकृतध्वनिभिविशन्ति ॥ ८॥ ३. स्वं वीक्ष्य बन्यद्विरदो नितम्बे यस्य बिम्बितम् । समेत्य दन्तैस्तं हन्ति मदिनां का विवेकिता ॥९॥
-जीवन्धरचम्पू, लम्भ ३. बिम्ब विलोक्य निजमुज्ज्वलरत्नभित्तो क्रोधात्प्रतिद्विप इतीह ददी प्रहारम् । तद्भग्नदीर्घदशनः पुनरेव तोषाल्लीलालसं स्पृशति पश्य गंजः प्रियेति ॥ १९ ॥
-धर्मशर्माभ्युदय सर्ग १०;