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________________ पंचमः सर्गः तस्याः पतिधैर्यधनः खगेन्द्रो महेन्द्रलीलो विविर्धाद्धराशिः । विद्यावलिप्रोन्नतचारुचेता महाप्रभावोऽथ मयूरकण्ठः ॥१५ सुरक्त सर्व प्रकृतिः प्रतापी नित्योदयोऽपास्ततमः प्रचारः । पद्माकरेशो जगदेकदीपो विभाति यो भास्करवत्संदर्भ्यः ॥१६ अपास्तपद्मा कमलेव कान्तिर्गृहीतमूर्तिः स्वयमागतेव । रतिः स्मरस्येव बभूव देवी मनोहराङ्गी कनकादिमाला ॥१७ जङ्घामृदुत्वेन हता नितान्तं विसारतां सत्कदली प्रयाता । पयोधराभ्यां विजितं च यस्या मालूरमास्ते कठिनं वनान्ते ॥१८ २ नेत्रोत्पलाभ्यामनवाप्यं यस्या नीलोत्पलं सत्परिभूयमानम् । सरस्यगाधे पतितं प्रगत्य निकारसंतापनिनीषयेव ॥१९ ४९ जिसका धन था, जो महेन्द्र के समान लीला का धारक था, जो अनेक ऋद्धियों का समूह था, जिसका उदार और सुन्दर हृदय विद्याओं से गर्वित था, तथा जिसका बहुत बड़ा प्रभाव था ऐसा मयूरकण्ठ- ( मयूरग्रीव) नाम का विद्याधरों का राजा उस अलका नगरी का स्वामी था ।। १५ ।। जो मयूरकण्ठ सूर्य के समान सुशोभित होता था; क्योंकि जिस प्रकार सूर्य सुरक्त सर्वप्रकृति होता है — उसमें समस्त प्रकृति - प्रजा सुरक्त-अच्छी तरह अनुरक्त रहती है उसी प्रकार मयूरकण्ठ भी सुरक्त सर्वप्रकृति था— मन्त्री आदि मूलवर्ग उसमें अच्छी तरह अनुरक्त था अथवा उसकी सर्वप्रकृतिसम्पूर्णस्वभाव सुरक्त—उत्तम प्रेम से परिपूर्ण था । जिस प्रकार सूर्य प्रतापी - प्रकृष्ट तपन से बहुत भी गर्मी से युक्त होता है उसी प्रकार वह मयूरकण्ठ भी प्रतापी - कोश और सेना से उत्पन्न होनेवाले तेज से युक्त था । जिस प्रकार सूर्य नित्योदय - प्रतिदिन होनेवाले उदय से युक्त होता है उसी प्रकार मयूरकण्ठ भी नित्योदय - स्थायी अभ्युदय से युक्त था । जिस प्रकार सूर्य अपास्ततमः - प्रचार—अन्धकार के प्रसार को नष्ट करनेवाला होता है उसी प्रकार मयूरकण्ठ भी अपास्ततमः प्रचारतमोगुण अथवा अज्ञान के प्रसार को नष्ट करनेवाला था । जिस प्रकार सूर्य पद्माकरेश – कमलवन का स्वामी होता है उसी प्रकार मयूरकण्ठ भी पद्माकरेश – लक्ष्मी के हाथों का स्वामी था । जिस प्रकार सूर्य जगदेकदीप - जगत् का अद्वितीय दीपक है उसी प्रकार मयूरकण्ठ भी जगदेकदीप - जगत् का अद्वितीय प्रकाशक था और जिस प्रकार सूर्य सदर्च्य -सत्पुरुषों के द्वारा पूज्य होता है उसी प्रकार मयूरकण्ठ भी सदर्च्य सत्पुरुषों के द्वारा समादरणीय था ।। १६ ।। उसकी मनोहर शरीर को धारण करनेवाली कनकमाला नाम की रानी थी । वह कनकमाला ऐसी जान पड़ती थी मानों अपने निवासस्वरूप कमल छोड़कर कमला— लक्ष्मी ही आ पहुँची हो अथवा शरीर ग्रहण कर कान्ति ही स्वयं आ गई हो अथवा कामदेव की स्त्री रति ही हो ।। १७ ।। जिसकी जङ्घाओं की कोमलता से अत्यन्त पराजित हुई उत्तम कदली निःसारता को प्राप्त हो गई थी और स्तनों के द्वारा पराजित हुआ कठोर बिल्बफल वन के अन्त में रहने लगा ॥ १८ ॥ जिसके नेत्ररूपी नीलकमलों से तिरस्कृत - चन्द्रप्रभ०, सर्ग २. ७ १. सदायः म० विरोधः पञ्जरेष्वेव न मनःसु महात्मनाम् ॥ २. विलुप्तशोभानि विलोचनोत्पलैः सितेतराण्यम्बुरुहाणि योषिताम् । मरुच्चलद्वीचिनि यत्र शीतले लुठन्ति तापादिव दीर्घिकाजले || ३६ ॥ - चन्द्रप्रभचरित, सर्ग १. ३. नेत्रोत्पलाकारमनाप्य ब० । ४. निरीषयेव म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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