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________________ ३० वर्धमानचरितम् पारिव्राजमनुष्ठाय तपो निष्ठितजीवितः । सुरः सनत्कुमारेऽभूत्कल्पेऽनल्पश्रिया युतः ॥८८ सप्तसागरसंख्यातमायुस्तस्यागमत्क्षयम् । निपीतमिव तद्वीक्ष्य व्याजेनाप्सरसां दृशा ॥८९ अस्तीह मन्दिरं नाम सानन्दं भारते पुरम् । मन्दिराग्रचलत्केतुमालामन्दीकृतातपम् ॥९० गौतमोऽभूत् पुरे तस्मिन् द्विजः कुन्दसमद्विजः । कौशिकी कुशला गेहे गेहिनी चास्य वल्लभा ॥९१ Pararas शिखा कल्पानल्पकेशैर्ज्वलन्निव । मिथ्यात्वेनापरेणासीत्सोऽग्निमित्रस्तयोः सुत. ॥९२ गृहवासरांत हित्वा तपस्यामाचरम्पराम् । परिव्राजकरूपेण चक्रे मिथ्योपदेशनम् ॥९३ पञ्चतां चिरकालेन कालेन प्राप्य दुर्मदः । कल्पे बभूव माहेन्द्रे माहेन्द्रप्रतिमः सुरः ॥९४ सप्तोदधिसमं कालं तत्र स्थित्वा यथेच्छया । ततोऽच्यवत निःश्रीकः पादपाज्जीर्णपर्णवत् ॥९५ स्वस्तिमत्यां पुरिश्रीमान्सालङ्कायननामभाक् । द्विजन्माभूत्प्रिया चास्य मन्दिरा गुणमन्दिरम् ॥९६ स्वर्गादेत्य तयोरासी दपत्थमनपत्ययोः । वैनतेय इवाधारो भारद्वाजो द्विजश्रियः ॥९७ पोरिव्राजं तपस्तप्त्वा चिराद्गलितजीवितः । माहेन्द्र महनीयश्रीः कल्पेऽनल्पामरोऽभवत् ॥९८ स्पृहं दिव्यनारीभिरायतैर्घनपतिभिः । कर्णोत्पलैः कटाक्षैश्च मुमुदे तत्र ताडितः ॥९९ समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था ।। ८७ ।। यहाँ भी वह परिव्राजकों का तप धारण कर मृत्यु को प्राप्त हुआ और मरकर सनत्कुमार स्वर्ग में बहुत भारी लक्ष्मी से युक्त देव हुआ ।। ८८ ।। वहाँ उसकी सात सागर प्रमाण आयु उस तरह क्षय को प्राप्त हो गई मानों देखने के बहाने अप्सराओं के नेत्रों ने उसे पी ही लिया हो ।। ८९ ।। इसी भरत क्षेत्र में एक मन्दिर नाम का नगर है जो सब प्रकार के आनन्द से पूर्ण है तथा मन्दिरों के अग्रभाग पर फहराती हुई पताकाओं की पङ्क्ति से जहाँ सूर्य का आताप मन्द कर दिया गया है ।। ९० ।। उस नगर में कुन्द के समान दाँतों वाला एक गौतम नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी गृहकार्य में कुशल कौशिकी नाम की प्रिय स्त्री थी ।। ९९ ।। अग्निसह का जीव देव, तीव्र मिथ्यात्व के कारण उन दोनों के अग्निमित्र नाम का पुत्र हुआ। वह अग्निमित्र, दावानल की ज्वालाओं के समान बहुत भारी केशों से -पीली-पीली जटाओं से ऐसा जान पड़ता था मानों प्रज्वलित ही हो रहा हो ॥ ९२ ॥ | गृहवास की प्रीति को छोड़ बहुत भारी तपस्या करते हुए उसने परिव्राजक के वेष में मिथ्या उपदेश किया ।। ९३ ॥ चिरकाल बाद आयु समाप्त होने से मृत्यु को प्राप्त हुआ वह अहंकारी ब्राह्मण माहेन्द्र स्वर्ग में माहेन्द्र के समा देव हुआ ।। ९४ ।। वहाँ इच्छानुसार सात सागर तक रह कर वह देव श्रीहीन होता हुआ वहाँ से इस प्रकार च्युत हुआ जिस प्रकार कि वृक्ष से जीर्ण पत्ता च्युत होता है - नीचे गिरता है ।। ९५ ।। तदनन्तर स्वस्तिमती नगरी मैं एक सालङ्कायन नाम का श्रीमान् ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम मन्दिर था जो सचमुच ही गुणों का मन्दिर थी ।। ९६ ।। उन दोनों के कोई सन्तान नहीं थी । अग्निमित्र का जीव देव, स्वर्ग से आकर उन दोनों के भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ। वह भारद्वाज गरुड़ के समान था क्योंकि जिस प्रकार गरुड़ पक्षियों का राजा होने के कारण द्विजश्री - पक्षियों की लक्ष्मी का आधार होता है उसी प्रकार वह भी द्विज की — ब्राह्मणों की लक्ष्मी का आधार था ।। ९७ ।। चिर काल तक परिव्राजक का तप तपकर वह मृत्यु को प्राप्त हुआ और मर कर माहेन्द्र स्वर्ग में महनीय विभूति का धारक बहुत बड़ा देव हुआ ।। ९८ ।। वहां पंक्तिबद्ध अनेक १. गुणमन्दिरा म० । २. द्विजप्रियः म० । ३. पारिव्रजं म० । ४. नल्पेऽमरो ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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