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________________ तृतीयः सर्गः अनारतं रतं तासामन्वभूदन्वितः श्रिया । सप्तसागरसख्यातकालस्थितिसमेतया ॥१०० कल्पवृक्षस्य कम्पेनम्लानमन्दारमालया। दृष्टिभ्रान्त्यादिभिश्चान्यैः सूचितः स्वर्गनिर्गमः॥१०१ विललाप कृताक्रन्दो मन्दीभूततनुधतिः। विषादविधुरां दृष्टिमिष्टरामासु पातयन् ॥१०२ शान्तपुण्यप्रदीपस्य चिन्तासंतप्तचेतसः । आशाचक्रं निराशस्य ममाद्य तिमिरावृतम् ॥१०३ हा स्वर्गविभ्रमोपेतदिव्यनारीजनाञ्चिते । किं मान धारयस्यात निपतन्तं निराश्रयम् ॥१०४ शरणं कं प्रपद्येऽहं कि कृत्यं का गतिर्मम । केनोपायेन वा मृत्यु वञ्चयिष्यामि तत्त्वतः॥१०५ सहजेन गतं क्वापि लावण्येनापि देहतः। हा हा पुण्यक्षये किं वा विश्लेषं नोपगच्छति ॥१०६ प्रणयेन समाश्लिष्य गाढं कण्ठे तनूदरि। रुन्धि वेगेन गात्रेभ्यो नियियासूनसूनिमान् ॥१०७ वसन्ततिलकम् कुर्वन्प्रलापमिति मानसदुःखभारसंप्रेरणादिव दिवः सहसा पपात । कारुण्यवाष्पलुलिताक्षियुगेन दृष्टः कष्टं विकृत्य निजमुग्धवधूजनेन ॥१०८ उपजातिः ततोऽवतीर्यास्तमितोरुपुण्यो मिथ्यात्वदाहज्वरविह्वलात्मा। चिरं त्रसस्थावरयोनिमध्यमध्यास्त दुःखानि समश्नुवानः ॥१०९॥ देवाङ्गनाओं के द्वारा इच्छापूर्वक सुदीर्घ कर्णाभरणों और कटाक्षों से ताड़ित होता हुआ वह देव प्रमोद को प्राप्त हुआ ॥ ९९ । सात सागर प्रमाण स्थिति से युक्त लक्ष्मी के सहित वह देव निरन्तर उन देवाङ्गनाओं के सुरत का अनुभव करता था ॥ १०० ॥ अन्त में कल्पवृक्ष के कम्पन से, मुरझाई हुई मन्दारमाला से तथा दृष्टिभ्रान्ति आदि अन्य कारणों से जब उसे स्वर्ग से निकलने की सूचना मिली तब वह रोने लगा, उसके शरीर की कान्ति मन्द पड़ गई, तथा विषाद से विधुर दृष्टि को इष्ट स्त्रियों पर डालता हआ इस प्रकार विलाप करने लगा ।। १०१-१०२॥ जिसका पुण्यरूपी दीपक बुझ गया है, जिसका चित्त चिन्ता से संतप्त हो रहा है तथा जिसकी आशाएँ नष्ट हो चुकी हैं ऐसे मेरा दिङ्मण्डल आज अन्धकार से आवृत हो गया है। १०३ ॥ बड़े दुःख की बात है कि हाव-भाव से मुक्त देवाङ्गनाओं से सुशोभित हे स्वर्ग ! दुखी, नीचे पड़ते हुए मुक्त निराधार को तुम क्यों नहीं धारण कर रहे हो ? ॥ १०४ ॥ मैं किसकी शरण जाऊँ ? मुझे क्या करना चाहिये ? मेरा आधार क्या है ? अथवा वास्तव में किस उपाय से मैं मृत्यु को चकमा दे सकता हूँ ? मेरा सहज-जन्मजात सौन्दर्य भी शरीर से निकल कर कहीं चला गया है । हाय-हाय ! पुण्य का क्षय होने पर कौन वस्तु वियोग को प्राप्त नहीं होती ? ॥ १०५-१०६॥ हे कृशोदरि ! प्रेमपूर्वक गले से गाढ आलिङ्गन कर शरीर से वेगपर्वक निकलने के लिये इच्छक इन प्राणों को रोक लो॥ १०७॥ जो इस प्रकार का प्रलाप कर रहा था तथा दयालुता के कारण अश्रुपूर्ण नयन युगल से युक्त उसकी सुन्दर स्त्रियाँ जिसे दुःख प्रकट कर देख रही थी ऐसा वह देव मानसिक दुःख के भार की प्रबल प्रेरणा से ही मानों स्वर्ग से शीघ्र ही नीचे गिर गया-मृत्यु को प्राप्त हो गया । १०८ ॥ तदनन्तर जिसका विशाल पुण्य अस्त हो गया था तथा जिसकी आत्मा मिथ्यात्वरूपी दाह ज्वर से विह्वल हो रही थी ऐसा १. दन्वितं ब० जनाचितः ब.। २. वारयिव्यामि ब०। ३. विधृत्य म०। . .
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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