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________________ २९ तृतीयः सर्गः अमेयकान्तिसंपत्ति दधानो दिविजो महान् । अभवत्प्रथमे स्वर्गे स्वर्गनारीमनोहरः ॥७६ ज्वलन्मणिविमानान्तमध्यास्य प्रीतमानसः । निर्विशन्नामरान्भोगा निर्ववार प्रियासखः ॥७७ तदपायभवामेयशोकाशनिहतो हृदि । निपपात ततो नाकाद द्विसमुद्रायुषः क्षयात् ॥७८ स्थूणाकारे पुरे सोऽभूद्भारद्वाजो द्विजोत्तमः । यः शुद्धोभयपक्षाभ्यां राजितो राजहंसवत् ॥७९ कुन्दकुड्मलसत्कान्ति हसन्ती दन्तशोभया । पुष्पवन्ताभवत्तस्य गृहिणी गृहभूषणा ॥८० अवतीयं ततः पुत्रः पुष्पमित्रस्तयोरभूत् । अन्योऽन्यरक्तयोनित्यं मोहबीजप्र रोहवत् ॥८१ उपगम्य परिव्राजामाश्रमं स्वर्गंलिप्सया । बाल एव बलाद्दीक्षां जग्राह निरवग्रहः ॥८२ चिरकालं तपस्तप्त्वा मृत्योवंशमुपागतः । ईशानेऽजनि गीर्वाणो द्विपारावारजीवितः ॥ ८३ पश्यन्नप्सरसां नृत्यं तस्मिन्नोस्त मनोहरे । कन्दर्पविबुधातोद्य वाद्यगीतक्रमानुगम् ॥८४ तं स्वर्गः पातयामास क्षीणे पुण्येऽपि निर्जरम् । आधोरणं दिनापाये शयालुं मत्तदन्तिवत् ॥ ८५ पुरि श्वेतविकाख्यायामग्निभूति द्विजोऽग्निचित् । तद्भार्या गौतमी चासोदद्युम्नद्युतिरपांसुला ॥८६ उदपादि दिवश्च्युत्वा सूनुरग्निसहस्तयोः । कपिलाकृतदिग्भागो विद्युद्दीप्ततनुद्युता ॥८७ यम ने उसे प्राप्त किया था अर्थात् उसका मरण हो गया ।। ७५ ।। मरने के बाद वह प्रथम स्वर्ग में अपरिमित कान्तिरूपी सम्पत्ति को धारण करने तथा देवाङ्गनाओं के मन को हरनेवाला महान् देव हुआ ।। ७६ ।। देदीप्यमान मणियों से युक्त विमान के मध्य में अधिष्ठित हो वह प्रसन्न चित्तदेव, अपनी देवाङ्गनाओं के साथ देवगति के भोगों का उपभोग करता हुआ संतुष्ट हो रहा था ।। ७७ ।। देवगति सम्बन्धी सुख के विनाश से उत्पन्न होनेवाले अपरिमित शोकरूपी वज्र से हृदय पर ताड़ित हुआ वह देव दो सागर प्रमाण आयु का क्षय होने पर उस स्वर्ग से च्युत हुआ ।। ७८ ।। तदनन्तर स्थूणाकार नगर में एक भारद्वाज नामक उत्तम ब्राह्मण रहता था जो राजहंस पक्षी के समान निर्दोष उभय पक्षों - मातृपक्ष और पितृपक्ष ( पक्ष में निर्दोष दो पङ्खों) से सुशोभित था ।। ७९ ।। उसकी पुष्पदन्ता नाम की स्त्री थी जो अपने दाँतों की शोभा से कुन्द की कलियों की उत्तम कान्ति की हँसी करती थी तथा घर का आभूषणस्वरूप थी ।। ८० ।। मैत्रायण का जीव देव, स्वर्ग से अवतीर्ण होकर निरन्तर परस्पर अनुरक्त रहनेवाले उन दोनों के पुष्पमित्र नाम का पुत्र हुआ । वह पुष्पमित्र, मोहरूपी बीज के अंकुर के समान जान पड़ता था ।। ८१ ॥ प्रतिबन्ध से रहित उस पुष्पमित्र ने स्वर्गं प्राप्त करने की इच्छा से बाल्य अवस्था में ही परिव्राजकों के आश्रम में जाकर हठपूर्वक दीक्षा धारण कर ली अर्थात् परिव्राजक का वेष धारण कर लिया ॥८२॥ चिरकाल तक तप तपकर वह मृत्यु को प्राप्त होता हुआ ऐशान स्वर्ग में दो सागर की आयु वाला देव हुआ ।। ८३ ।। उस मनोहर स्वर्ग में वह कन्दर्पजाति के देवों के द्वारा बजाये हुए बाजों तथा गीतों के क्रमानुसार होनेवाले अप्सराओं के नृत्य को देखता हुआ निवास करने लगा ।। ८४ ।। जिस प्रकार दिन के समाप्त होने पर सोनेवाले महावत को मत्त हस्ती नीचे गिरा देता है उसी प्रकार पुण्य क्षीण होने पर उस देव को भी स्वर्ग ने नीचे गिरा दिया ।। ८५ ।। तदनन्तर श्वेतविका नाम की नगरी में अग्निभूति नाम का एक अग्निहोत्री ब्राह्मण था और सुवर्ण के समान कान्ति वाली, पतिव्रता गौतमी उसकी स्त्री थी ।। ८६ ।। पुष्पमित्र का जीव देव, स्वर्ग से च्युत होकर उन दोनों के अग्निसह नाम का पुत्र हुआ। वह अग्निसह बिजली के समान देदीप्यमान शरीर की कान्ति से १. तस्मिन्नास्ते म० । २. पुरे म० । ३. रपांशुला म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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