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________________ प्रथमः सर्गः निसर्गशत्रूनपि योऽभ्युपेतानाान्तरात्मा नृपतिर्बभार । और्वानलस्य प्रविज़म्भमाणान् ज्वालासमूहानिव वारिराशिः॥४० यो वाञ्छितानेकफलप्रसूति भूत्यै प्रजानां नयकल्पवृक्षम् । प्रज्ञाम्बुसेकेन निनाय वृद्धि परोपकाराय सतां हि चेष्टा ॥४१ अलङ कृताशेषमहीतलेन प्रोत्फुल्लकुन्दद्युतिनापि यस्य । तदद्भुतं शत्रुवधूमुखेन्दोमलोमसत्वं यशसा कृतं यत् ॥४२ तस्याथ कान्तेरधिदेवतेव वेलेव लावण्यमहार्णवस्य । मूर्ता जयश्रीरिव पुष्पकेतोरासीप्रिया वीरवतीति नाम्ना ॥४३ 'विद्युल्लतेवाभिनवाम्बुवाहं चूतमं नूतनमञ्जरीव । स्फुरत्प्रभेवामलपद्मरागं विभूषयामास तमायताक्षी ॥४४ तौ दम्पती सर्वगुणाधिवासावन्योन्ययोग्यौ विधिवनियोज्य । चिरेण नूनं विधिनापि दृष्टं सृष्टेः फलं तत्प्रथमं कथंचित् ॥४५ और मर्यादा के लिये समुद्र था ॥३८॥ जिस प्रकार मेघ का आवरण दूर होने पर शरद् ऋतु के संध्या समय आकाश में प्रतिष्ठा को प्राप्त कर ताराएं सुशोभित होती हैं उसी प्रकार समस्त राजविद्याएँ निर्मल स्वभाव वाले उस उदार राजा में प्रतिष्ठा को प्राप्त कर सुशोभित हो रही थीं ॥३९।। जिस प्रकार जल से आर्द्र अन्तरात्मा वाला समुद्र वड़वानल को बढ़ती हुई ज्वालाओं के समूह को धारण करता है उसी प्रकार दया से आर्द्र अन्तरात्मा वाला वह राजा शरण में आये हुए स्वाभाविक शत्रुओं को भी धारण करता था अर्थात् शरणागत शत्रुओं की भी रक्षा करता था ॥४०॥ जो राजा प्रजाओं को विभूति के लिये अनेक फलों को उत्पन्न करने वाले नयरूपी कल्पवृक्ष को बुद्धिरूपी जल के सेक से वृद्धिंगत करता रहता है सो ठीक हो है क्योंकि सत्पुरुषों की चेष्टा परोपकार के लिये ही होती है। भावार्थ-वह अपनी बुद्धि से विचार कर राजनीति का इस प्रकार प्रयोग करता था जिस प्रकार प्रजा के वैभव की वृद्धि होती थी ॥४१॥ जिसने समस्त पृथिवी तल को अलंकृत कर रखा था तथा जो स्वयं खिले हुए कुन्द के समान कान्ति से युक्त था ऐसे यश के द्वारा उस राजा ने शत्रु स्त्रियों के मुखरूपी चन्द्रमा को मलिन कर दिया था यह आश्चर्य की बात थी॥४२॥ तदनन्तर उस राजा नन्दिवर्द्धन की वीरवती नाम की वल्लभा थी जो ऐसी जान पड़ती थी मानों कान्ति की अधिष्ठात्री देवी हो, अथवा सौन्दर्यरूपी महासागर की तटी हो, अथवा कामदेव की मूर्तिमन्त विजयलक्ष्मी ही हो ॥४३॥ जिस प्रकार नूतन मेघ को बिजलीरूपी लता सुशोभित करती है, जिस प्रकार नवीन मञ्जरी आम्रवृक्ष को अलंकृत करती है और जिस प्रकार देदीप्यमान प्रभा निर्मल पद्मरागमणि को विभूषित करती है उसी प्रकार वह दीर्घलोचना राजा नन्दिवर्धन को विभूषित करती थी ॥४४॥ जिनमें समस्त गुणों का निवास है तथा जो परस्पर एक-दूसरे के योग्य १. तस्य सत्यन्धरस्यासीत्कान्ता कान्त्यधिदेवता। वेला लावण्यपाथोविश्रुता विजयाख्यया ॥२६॥ सौदामिनीव जलदं नव मञ्जरीव चतमं कुसूमसंपदिवाद्यमासम् । ज्योत्स्नेव चन्द्रमसमच्छविभेव सूर्य तं भूमिपालकमभूषयदायताक्षी ।।२७॥--- जीवन्धर० प्रथमलम्भ २. सृष्टं म०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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