________________
वर्धमानचरितम्
सृजन्ति रात्रावपि यत्र वाप्यः स्फुरत्तटीरत्नमरीचिभाभिः । दिनश्रियं कोककुटुम्बिनीनां वियोगशोकापनिनीषयेव ॥३२ चन्द्रोदये चन्द्रमणिप्रणद्धसौधानभूमिभ्रमनिर्गतानि । आदाय तोयानि धनीकृताङ्गा यथार्थतां यत्र घनाः प्रयान्ति ॥३३ यस्यां निशीथे गृहदीधिकाणां भ्राम्यन्ति भृङ्गाः कुमुदोदरेषु। चन्द्रांशुभिर्जर्जरितान्धकारलेशा इवामोदितदिङ मुखेषु ॥३४ यस्यां गवाक्षान्तरसंप्रविष्टां ज्योत्स्नां सुधाफेनसितां प्रदोषे। दुग्धेच्छया स्वादयति प्रहृष्टो मार्जारपोतो मणिकुट्टिमेषु ॥३५ सर्वर्तवोऽलङ कृतसर्ववृक्षाः सदाधितिष्ठन्ति वनानि यस्याम् । लतागृहान्तर्गतदम्पतीनां विलाससौन्दर्यदिदृक्षयेव ॥३६ अथेश्वरो विश्वजनीनवृत्तिस्तस्याः पुरोऽभूत्पुरुहूतभूतिः। प्राग्नन्दिशब्दान्वितवर्धनाख्यो विख्यातवंशो रिपुवंशदावः ॥३७ प्रतापभानोरुदयादिरिन्दुः कलाकलापस्य समग्रकान्तिः। पुष्पोद्गमो यो विनयद्रुमस्य जातः स्थितेरम्बुधिरम्बुजासः ॥३८ यस्मिन्महात्मन्यमलस्वभावे नरेन्द्रविद्याः सकलाः प्रतिष्ठाम् । अवाप्य रेजुर्घनरोधमुक्तेदिनव्यपाये नभसीव ताराः ॥३९
टट कर बिखरे हुए मोतियों से व्याप्त गलियाँ निरन्तर सुशोभित होती रहती हैं ॥३१॥ जिस नगरी में वापिकाएं रात्रि के समय भी देदीप्यमान तटों में संलग्न रत्नों की किरणावली के द्वारा चकवियों के वियोगरूपी शोक को दूर करने की इच्छा से ही मानों दिन की लक्ष्मी को प्रकट करती रहती हैं ॥३२॥ जहाँ चन्द्रोदय होने पर चन्द्रकान्त मणियों से खचित महलों के अग्रभाग में भ्रम से निकले हा जल को लेकर जिनके शरीर अत्यन्त सघन हो रहे हैं ऐसे घन-मेघ सार्थक नाम को प्राप्त होते हैं अर्थात् सचमुच वे सघन होते हैं ॥३३।। जहाँ अर्द्ध रात्रिके समय गृहवापिकाओं के दिदिगंत को सुगन्धित करने वाले कुमुदों के मध्य में भ्रमर इस प्रकार घूमते हैं मानों चन्द्रमा की किरणों से जर्जर अवस्था को प्राप्त हुए अन्धकार के खण्ड ही हों॥३४॥ जहाँ सायंकाल के समय झरोखों के बीच से प्रविष्ट होकर मणिमय फर्मों में बिखरी हुई अमृतफेन के समान सफेद चांदनी को दूध समझ कर बिलाव का बच्चा हर्षित होता हुआ चाटता रहता है ॥३५।। जहाँ समस्त वृक्षों को अलंकृत करनेवाली सब ऋतुएँ वनों में सदा निवास करती हैं उससे ऐसा जान पड़ता है कि वे लतागृहों के भीतर स्थित दम्पतियों के विलासपूर्ण सौन्दर्य को देखने की इच्छा से हो मानों सदा निवास करती हैं ॥३६॥
___ तदनन्तर जिसको चेष्टा समस्त जीवों का हित करने वाली थी, जो इन्द्र के समान विभूति का धारक था, जिसका वंश अत्यन्त प्रसिद्ध था तथा जो शत्रुओं के वंशरूपी बांस के वृक्षों को जलाने के लिये दावानल के समान था ऐसा नन्दिवर्द्धन नाम का राजा उस नगरी का स्वामी था ॥३७॥ कमलों के समान नेत्रों को धारण करने वाला वह राजा प्रतापरूपी सूर्य के लिये उदयाचल था, कलाओं के समूह के लिये सम्पूर्ण कान्ति से युक्त चन्द्रमा था, विनयरूपी वृक्ष के लिये वसन्त था
१. जालः ब०।