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प्रथमः सर्गः
येस्यां गृहालिन्दकभागभाजां हरिन्मणीनां किरणप्ररोहैः । प्राग्वञ्चिता बालमृगाश्चरन्ति तच्छङ्कया नाग्रगतां च दुर्वाम् ॥२५ येत्रोल्लसत्कुण्डलपद्मरागच्छायावतंसारुणिताननेन्दुः । प्रसाद्यते कि कुपितेति कान्ता प्रियेण कामाकुलितो हि मूढः ॥२६ यत्राम्बराच्छस्फटिकाश्मवेश्म प्रोत्तुङ्गभृङ्गस्थितचारुरामाः । नभोगता ह्यप्सरसः किमेता इति क्षणं पश्यति पौरलोकः ॥ २७ यस्यां गवाक्षान्तरसंप्रवेशात्संक्रान्तबालातपचक्रवाला । विराजते कुङ्कुमर्चाचतेव निकेतनाभ्यन्तररत्नभूमिः ॥२८ दृष्ट्वा स्फुटं स्फाटिकभित्तिभागे पुरः स्थितस्वप्रतिबिम्बकानि । विपक्षशङ्काकुललोलचित्ताः क्रुध्यन्ति यत्र प्रमदाः प्रियेभ्यः ॥ २९ प्रासादशृङ्गाणि समेत्य मेघा यस्यां मयूरान्मदयन्त्यकाले । तच्चित्र रत्नांशुकलापमालासंपादिताखण्डलचापखण्डाः ॥३० विभान्ति यस्यां विशिखा जनानामितस्ततः संचरतामजस्रम् । अन्योन्यसंघट्ट विशीर्णहारमुक्ताफलैस्तारकितैकदेशाः ॥३१
भौंरा उनके सन्मुख आता रहता है सो ठीक ही है । क्योंकि भ्रान्त जीवों को विवेक नहीं होता ||२४|| जिस नगरी में महलों की देहलियों में खचित हरे मणियों की किरणरूपी अंकुरों से पहले छकाए हुए बालमृग उन्हीं किरणों की शङ्का से आगे पड़ी हुई दूर्वा को भी नहीं खाते हैं ॥२५॥ जिस नगरी में सुशोभित कुण्डलों में खचित पद्मराग मणियों की कान्ति से जिसका मुखचन्द्र लाल-लाल हो रहा है ऐसी स्त्री को उसका पति 'क्या यह कुपित हो गई है' यह समझ कर प्रसन्न करता रहता
सो ठीक ही है क्योंकि कामी मनुष्य मूढ़ होता ही है ||२६|| जहाँ आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक मणि के महलों की ऊँची शिखरों पर स्थित सुन्दर स्त्रियों को 'क्या ये आकाश में स्थित अप्सराएं हैं' यह समझ कर नगरवासी लोग उत्सवपूर्वक देखते हैं ||२७|| जहाँ झरोखों के भीतर प्रवेश करने से प्रातःकाल की सुनहली धूप प्रतिबिम्बित हो रही है ऐसे मकानों की भीतरी रत्नमय भूमि केशर से चर्चित हुई के समान सुशोभित होती है ||२८|| जहाँ स्फटिक मणि की दीवालों में सामने स्थित अपने प्रतिबिम्बों को स्पष्ट रूप से देखकर जिनके चंचलचित्त सपत्नियों की आशङ्का से व्याकुल हो रहे हैं ऐसी स्त्रियां पतियों के प्रति क्रोध प्रकट करती रहती हैं ॥ २९॥ महलों की शिखरों पर लगे हुए चित्र-विचित्र मणियों की किरणावली के द्वारा जिनमें इन्द्रधनुष के खण्ड संलग्न मालूम होते हैं ऐसे मेघ, महलों की शिखरों पर आकर जहाँ असमय में ही मयूरों को मत्त करते रहते हैं ||३०|| जिस नगरी में जहाँ-तहाँ विचरने वाले मनुष्यों के परस्पर के संघट्ट से
१. यस्यामनर्घ्य नृपमन्दिरदेहलीषु गारुत्मतैर्मृगगणा बहु वञ्चिताः प्राक् ।
दृष्ट्वापि कोमलतृणानि न संचरन्ति स्त्रीमन्दहासघवलानि चरन्ति तानि ॥ १७॥ २. प्रथिता विभाति नगरी गरीयसी धुरि यत्र रम्य सुदतीमुखाम्बुजम् । कुरुविन्दकुण्डलविभाविभावितं प्रविलोक्य कोपमिव मन्यते जनः ॥ २५ ॥ ३. स्फुरत्तुषारांशुमरीचिजालैर्विनिह्न ु ताः स्फाटिक सोधपङ्क्तीः । आरुह्य नार्यः क्षणदासु यत्र नभोगता देव्य इव व्यराजन् ॥४३॥
जीवन्धरलम्भ १
जीवन्धरलम्भ ६
शिशुपालवध सर्ग ३