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________________ वर्धमानचरितम् पारावतेन्दीवरकर्णपूरा कुड्यस्थनीलांशुकलापवासाः। कूटान्तरप्रान्तविलम्बमानशुभ्राभ्रमालाललितोत्तरीया ॥२० आरूढकेकिव्रजबहकेशी विलोलहेमाम्बुजदामबाहुः । समनचामीकरकुम्भपीनस्तनाञ्चिता चारुगवाक्षनेत्रा ॥२१ अलङ कृतद्वारमुखी समन्तादध्यासिताशाम्बुजिनीविताना। मिथ्यादृशामप्यभिवीक्षणेच्छां जिनालयश्रीः प्रतनोति यस्याम् ॥२२ [विशेषकम् ] यत्सौधकुड्येषु विलम्बमानानितस्ततो नीलमहामयूखान् । ग्रहीतुमायान्ति मुहुर्मयूर्यः कृष्णोरगास्वादनलोलचित्ताः ॥२३ विनिर्मलस्फाटिकरत्नभूमौ संक्रान्तनारीवदनानि यत्र । अभ्येति भृङ्गः कमलाभिलाषी भ्रान्तात्मनो नास्त्यथवा विवेकः ॥२४ से ही समावृत हो ॥१९॥ जिस नगरी में जिनमन्दिरों की शोभा मिथ्यादष्टि जीवों को भी दर्शन करने की इच्छा उत्पन्न करती रहती है। क्योंकि वहाँ की वह जिनमन्दिरों की शोभा सुन्दर स्त्री के समान जान पड़ती है क्योंकि जिस प्रकार सुन्दर स्त्री नीलकमलों के कर्णपूर-कर्णाभरणों से सुशोभित होती है उसी प्रकार जिनमन्दिरों की शोभा भी कबूतररूपी नीलकमलों के कर्णाभरणों से सुशोभित है । जिस प्रकार स्त्री नीलवर्ण के वस्त्रों से सुशोभित होती है उसी प्रकार वह जिनमन्दिरों की शोभा भी दीवालों में संलग्न नीलमणियों की किरणावलीरूपी नील वस्त्रों से सुशोभित है। जिस प्रकार स्त्री श्वेतरङ्ग के उत्तरीय वस्त्र से सुशोभित होती है उसी प्रकार जिनमंदिरों की शोभा भी शिखरों के बीच-बीच में छाये हुए श्वेत रङ्ग की मेघमालारूप उत्तरीय वस्त्र से सुशोभित है। जिस प्रकार स्त्री सुन्दर केशों से सहित होती है उसी प्रकार जिनमन्दिरों की शोभा भी ऊपर चढ़े हुए मयूरसमूह के पिच्छरूपी सुन्दर केशों से सहित है। जिस प्रकार स्त्री उत्सम भुजाओं से सहित होती है उसी प्रकार जिनमन्दिरों की शोभा भी चंचल सुवर्णकमलों की मालारूपी भुजाओं से सहित है । जिस प्रकार स्त्री स्थूल स्तनों से सुशोभित होती है उसी प्रकार जिनमंदिरों की शोभा भी समस्त सुवर्णकलशरूपी स्थूल स्तनों से सुशोभित है। जिस प्रकार स्त्री नेत्रों से युक्त होती है उसी प्रकार जिनमन्दिरों की शोभा भी सुन्दर झरोखेरूपी नेत्रों से युक्त है। जिस प्रकार स्त्री मुख से सहित होती है उसी प्रकार जिनमन्दिरों की शोभा भी अलंकृत द्वाररूपी मुखों से सहित है और जिस प्रकार स्त्री कमलिनियों के समूह को धारण करती है उसी प्रकार जिनमन्दिरों को शोभा भी सब ओर दिशारूपी कमलिनियों के समूह को धारण करती है अर्थात् चारों ओर विस्तृत मैदानों से सुशोभित है ॥२०-२२।। जिस नगरी के महलों की दीवालों पर जहाँ-तहाँ संलग्न नीलमणियों को बड़ी-बड़ी किरणों को ग्रहण करने के लिए मयूरियां बार-बार आती रहती हैं क्योंकि वे उन किरणों को काले सर्प समझ कर खाने के लिए उत्सुक हो उठती हैं ॥२३॥ जिस नगरी में अत्यन्त निर्मल स्फटिक मणि की भूमि में प्रतिबिम्बित स्त्रियों के मुखों को कमल समझकर १. संरोपितेन्दीवर म० । २. द्वारमुखातिकाममध्यासिता ब०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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