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________________ .८ वर्धमानम् प्रबुद्धपद्माकरसेव्यपादं जगत्प्रेदीपं क्षितिपः स तस्याम् । उत्पादयामास सुतं यथाकं प्राच्यां प्रतापानुगतं प्रभातः ॥४६ तज्जन्मकाले विमलं नभोऽभूद्दिग्भिः समं भूरपि सानुरागा । स्वयं विमुक्तानि च बन्धनानि मन्दं ववौ गन्धवहः सुगन्धिः ॥४७ जिनेन्द्रपूजां महतीं विधाय चक्रे नरेन्द्रो दशमेऽह्नि सूनोः । सर्व प्रजामानसनन्दनत्वादर्थानुगां नन्दन इत्यभिख्याम् ॥४८ बाल्येऽपि योऽभ्यस्त समस्तविद्यो ज्याघातरेखाङ्कितसत्प्रकोष्ठः । वैधव्यदीक्षां रिपुसुन्दरीणां प्रदातुमाचार्यपदं प्रपेदे ॥४९ [ वसन्ततिलकम् ] पण्याङ्गनाजनकटाक्षश रैकलक्ष्यं कामस्य जीवनरसायनमप्यमूर्तेः । उद्दामरागरस सागरसाररत्नं लीलानिधि तमथ यौवनमाससाद ॥५० हैं ऐसे उन दोनों दम्पतियों की विधिपूर्वक रचना कर जान पड़ता है, विधाता ने भी चिरकाल के अनन्तर किसी तरह अपनी सृष्टि के उस प्रथम फल को देखा था || ४५|| राजा नन्दिवर्द्धन ने उस रानी में ठीक उसी तरह पुत्र उत्पन्न किया जिस तरह की प्रभात - काल पूर्व दिशा में सूर्य को उत्पन्न करता है । राजा नन्दिवर्द्धन का वह पुत्र सूर्य के समान था भी क्योंकि जिसप्रकार सूर्य प्रबुद्धपद्माकरसेव्यपाद - विकसित कमलसमूह से सेव्यमान किरणों से युक्त होता है उसी प्रकार वह पुत्र भी प्रबुद्धपद्माकरसेव्यपाद -- जागृत लक्ष्मी के हाथों से सेव्यमान चरणों से युक्त था। जिस प्रकार सूर्य जगत्प्रदीप – संसार को प्रकाशित करने वाला है उसी प्रकार वह पुत्र भी जगप्रदीप - संसार को सुशोभित करने वाला था और जिस प्रकार सूर्य प्रतापानुगतप्रकृष्ट ताप से सहित होता है उसी प्रकार वह पुत्र भी प्रतापानुगत – तेज से सहित था ॥ ४६ ॥ उसके जन्मकाल में आकाश निर्मल हो गया था, दिशाओं के साथ-साथ पृथिवी भी सानुरागलालिमा और प्रीति से सहित हो गई थी, बन्धन में बद्ध जीवों के बन्धन स्वयं खुल गये थे और सुगन्धित वायु धीरे-धीरे बहने लगी थी ॥४७॥ राजा ने दसवें दिन जिनेन्द्रभगवान् की बहुत बड़ी पूजा कर उस पुत्र का नन्दन नाम रक्खा। उसका यह नन्दन नाम समस्त प्रजा के मन को आनन्ददायक होने से सार्थक था ॥ ४८|| जिसने समस्त विद्याओं का अभ्यास कर लिया था तथा जिसका सुन्दर प्रकोष्ठ प्रत्यञ्चा के आघात की रेखा से चिह्नित था ऐसे उस नन्दन ने बाल्य अवस्था में भी शत्रु स्त्रियों को वैधव्य दीक्षा देने के लिये आचार्यपद को प्राप्त कर लिया था । तात्पर्य यह है कि वह छोटी ही अवस्था में शास्त्र और शस्त्र विद्या में निपुण हो गया था ||४९ ॥ तदनन्तर जो वेश्याजनों के कटाक्षरूपी बाणों का प्रमुख लक्ष्य है, शरीररहित होने पर भी कामदेव को जीवित करने वाली रसायन है तथा बहुत भारी रागरस रूपसागर का श्रेष्ठ रत्न है । १. जगत्प्रवीणं म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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