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________________ प्रस्तावना २७ बन्धके जिन कारणोंका निर्देश किया है वे कुन्दकुन्दके निम्नलिखित गाथाओंमें प्रतिपादित कारणोंके अनुरूप हैं रत्तो बंधदि कम्मं मुंचदि जीवो विरागसंपत्तो । एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०॥ -समयप्राभृत रत्तो बंधदि कम्म मुच्चदि कम्मेहि रागरहिदप्पा। एसो बंधसमासो जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥८७।। -ज्ञेयाधिकार-प्रवचनसार बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ॥२६॥ -इष्टोपदेश जिनवचनरसायनं दुरापं श्रुतियुगलाञ्जलिना निपीयमानम् । विषयविषतृषामपास्य दूरं कमिह करोत्यजरामरं न भव्यम् ॥११।४० -वर्धमानचरित जिणवयणमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं । जरमरणवाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं ।।१७।। -दर्शन पाहुड रघुवंश, कुमारसंभव, शिशुपालवध, चन्द्रप्रभचरित तथा किरातार्जुनीयके कितने ही श्लोकोंका भाव असगने ग्रहण किया है। जीवन्धर चम्पू और धर्मशर्माभ्युदयके भी कितने ही श्लोकोंका सादृश्य वर्धमानचरितके श्लोकोंके साथ मिलता है पर किसने किससे भाव ग्रहण किया यह विचारणीय है। तत्तत्प्रकरणोंमें मैंने समानान्तर श्लोक टिप्पणमें उद्धत किये हैं। सबसे अधिक सादृश्य भारविके किरातार्जुनीयके साथ मिलता है। वर्धमानचरितके सप्तम सर्ग और किरातार्जुनीयके दूसरे सर्गका छन्द एक है। अतः वर्धमानचरितके सर्ग ७ श्लोक ५२ और ५३ के मध्यमें किरातार्जनीयका सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् । वृणते हि विमृश्य कारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।। -श्लोक सम्मिलित हो गया और मराठी टीकावाले संस्करणमें इसकी टीका भी हो गयी परन्तु 'ब' प्रतिसे मिलान करनेपर वह श्लोक उसमें नहीं मिला। जान पड़ता है समानार्थक होनेसे किसीने टिप्पणमें लिखा हो और मराठी टीकाकारने उसे ग्रन्थका ही अङ्ग समझकर सम्मिलित कर लिया हो। इस संस्करणमें उसे मूलसे अलग कर दिया है। चरित्रचित्रण वर्धमानचरितके प्रमुख नायक श्री वर्द्धमान तीर्थंकर हैं। इनकी यह तीर्थंकर अवस्था ३७ पूर्वभवोंकी साधनाके पश्चात् विकसित हुई है। कविने इनकी पूर्वपर्यायोंका वर्णन इतनी सावधानीसे किया है कि उनके रूपका साक्षात्कार होने लगता है। राजा प्रजापतिका वर्णन उनकी समताको और उनके पुत्र जय तथा त्रिपृष्ठका वर्णन उनकी वीरताको साकार कर देता है। भगवान् वर्द्धमानकी बालचेष्टाओंका वर्णन भी उनकी निर्भयता और बुद्धिमत्ताको प्रकट करता है।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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