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वर्धमान चरित
इस प्रसिद्ध छन्दोयोजनाके अनुसार वर्धमानचरितमें निम्नांकित छन्दोंका प्रयोग हुआ है । कहाँ कौन छन्द है ? यह ग्रन्थके भीतर श्लोकके ऊपर दिया हुआ ।
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१ उपजाति, २ वसन्ततिलका, ३ रुचिरा, ४ इन्द्रवज्रा, ५ पृथ्वी, ६ प्रमिताक्षरा, ७ वियोगिनी, ८ पुष्पिताग्रा, ९ अतिरुचिरा, १० आर्यागीति, ११ इन्द्रवंशा, १२ उद्गता, १३ शिखरिणी, १४ वंशस्थ, १५ शार्दूलविक्रीडित, १६ अनुष्टुप् १७ मालिनी, १८ मालभारिणी, १९ मन्दाक्रान्ता, २० स्रग्धरा, २१ आख्यानकी, २२ शालिनी, २३ हरिणी, २४ ललिता, २५ रथोद्धता, २६ स्वागता, २७ प्रहर्षिणी, २८ द्रुतविलम्बित, २९ मञ्जुभाषिणी और ३० पन्द्रह अक्षरकी जातिवाला एक अज्ञात छन्द १५ । १०९ ।
रीति या भाषाका प्रवाह
कविने रसानुकूल भाषाका प्रवाह प्रवाहित किया है । इसमें कहीं अधिक समासवाले पद हैं, कहीं अल्प समासवाले पद हैं और कहीं समासरहित पद हैं । समुदायरूपसे पाञ्चाली रीति मानी जा सकती है । जान पड़ता है कि कविके हृदयसागरमें अनन्त शब्दरत्नोंका भाण्डार भरा हुआ है जिससे उसे किसी अर्थके वर्णनमें शब्दोंकी कमीका अनुभव नहीं होता । उसकी भाषा किसी शिथिलताके बिना अजस्रगतिसे आगे बढ़ती जाती है । देखिये —
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प्रत्यालयं प्रहतमङ्गलतूर्यशङ्खमुत्थापितध्वजवितानकृतान्धकारम् । प्राग्द्वारदेशविनिवेशितशातकुम्भकुम्भग्रदत्तसुकुमारयवप्ररोहम् नृत्यन्मदालसवधूजनवक्त्रपद्मव्यासक्तकामुकविलोचनमत्तभृङ्गम् रङ्गावलीविरचितोज्ज्वलपद्मरागप्रेङ्खत्प्रभापटलपल्लवितान्तरिक्षम् ॥ उच्चारणाचतुरचारणवन्दिवृन्दकोलाहलप्रतिनिनादित सर्वदिक्कम् । आसीत् परस्परविभूतिजिगीषयेव रम्यं पुरं खचरसन्निहितं वनं च ।। ६।१७-१९ भवङ्गत गुणहीनोऽपि गुणी धरातले ।
सुरभीकुरुतेऽथ कर्परं सलिलं पाटलपुष्पवासितम् ॥ ७४ सौधर्मकल्पमथ धर्मफलेन गत्वा
सद्यो मनोरमवपुः स मनोहरेऽभूत् । देवो हरिध्वज इति प्रथितो विमाने
सम्यक्त्वशुद्धिरथवा न सुखाय केषाम् ।। ११।६४
वर्धमानचरितपर पूर्ववर्ती कवियोंका प्रभाव
प्रतिभोपजीवी कवि अपनी प्रतिभाके बलपर ही काव्यरचना करता है, उसकी दृष्टि पूर्ववर्ती कवियोंके काव्योंसे निरपेक्ष रहती है परन्तु व्युत्पत्त्युपजीवी कवि अपने पूर्ववर्ती कवियोंके अगाध काव्यसागरसे अवगाहन कर उससे बहुत कुछ प्राप्त कर काव्यरचनामें अग्रसर होता है । व्युत्पत्त्युपजीवी असगने काव्यसागरका अवगाहन तो किया ही था साथमें कुन्दकुन्द, पूज्यपाद तथा अकलंक आदिके सिद्धान्तग्रन्थोंका भी अच्छी तरह अवगाहन किया था, ऐसा उनके साहित्यसे ध्वनित होता है । जैसे असगने तृतीय सर्ग के निम्नलिखित श्लोक
रागी बध्नाति कर्माणि वीतरागो विमुञ्चति ।
जीवो जिनोपदेशोऽयं संक्षेपाद् बन्धमोक्षयोः || ३|३०