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________________ २८ समीक्षा वर्धमान चरित वर्धमानचरित, तीर्थंकरका चरितकाव्य है । इसमें कविने वीरनन्दीके चन्द्रप्रभचरितकी तरह पूर्वभवोंके वर्णनमें ही ग्रन्थका बहुभाग घेर लिया है । वर्तमानभव के वर्णनके लिये बहुत थोड़ा भाग शेष रक्खा है इसलिये नायकका वर्तमानचरित्र संक्षिप्त हो गया है तथा कविके कवित्वसे वञ्चित रह गया है । प्रियमित्र चक्रवर्ती के लिये जो विस्तृत तत्त्वोपदेश दिया गया है वह एक पूरा धर्मशास्त्र बन गया है । काव्य के भीतर इतने सुदीर्घ तत्त्वोपदेश पाठकके चित्तको उद्विग्न कर देते हैं । इसके लिए संक्षिप्त उपदेश ही शोभास्पद होते हैं । फिर यही तत्त्वोपदेश यदि वर्धमान तीर्थंकर की दिव्यध्वनिके माध्यमसे दिया गया होता तो उससे चरित्र - नायक कृतित्वपर अधिक प्रकाश पड़ता। महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदयमें जो पद्धति अपनायी है वह काव्योचित है। rer कविका दूसरा ग्रन्थ शान्तिनाथपुराण है । यह १६ सर्गों में पूर्ण हुआ है, इसमें सोलहवें तीर्थं - कर श्री शान्तिनाथ भगवान्‌का चरित्र पूर्वभवोंके वर्णनके साथ अंकित किया गया है । वर्धमानचरित महाकाव्य है और यह पुराण है, इस संक्षिप्त सूचनासे ही दोनोंका अन्तर जाना जा सकता है । यह भी श्री जिनदास जी शास्त्रीकृत मराठी टीकाके साथ प्रकाशित हो चुका है। अब हिन्दी टीकाके साथ प्रकाशित होगा । ज्ञापित तथ्य सर्ग १८ श्लोक २ में कविने भगवान् महावीरके समवसरणका विस्तार बारह योजन बतलाया है जब • कि सिद्धान्तानुसार वह एक योजन मात्र था। जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्त्ताने समवसरण के बारह योजन विस्तृत होने की बात वादी सिंहकी गद्यचिन्तामणिके निम्न श्लोकसे ली है गीर्वाणाधिपचोदितेन धनदेन स्थायिकामादरात् सृष्टां द्वादशयोजनायततलां नानामणिद्योतिताम् । अध्यास्त त्रिदशेन्द्रमस्तकपिलत्पादारविन्दद्वयः प्राग्देवो विपुलाचलस्य शिखरे श्री वर्धमानो जिनः ॥ १० ॥ - गद्यचिन्तामणि यदि यह सत्य है तो वादीभसिंहका समय असगसे पूर्व अर्थात् अष्टम नवम शती स्वतः सिद्ध हो है। सुभाषितसंचय वर्धमानचरितमें सुभाषितोंका अपरिमित भाण्डार भरा है । कविने ग्रन्थको शृङ्गारबहुल प्रकरणोंसे बचाकर सुभाषितमय प्रकरणोंसे सुशोभित किया है । श्लोकोंके अर्ध अथवा चतुर्थं चरणके माध्यमसे जो सुभाषित दिये गये हैं उनका संकलन परिशिष्ट में 'सुभाषितसंचय' के नामसे किया गया है । शब्दकोष शब्दकोष के अन्तर्गत व्यक्तिवाचक, भौगोलिक, पारिभाषिक और कुछ साहित्यिक शब्दोंकी अनुक्रमणिकाएँ परिशिष्टमें दी गयी हैं । इनसे स्वाध्यायी और शोधार्थीजनोंको अध्ययन में सुविधा प्राप्त होगी, ऐसी आशा है ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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