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________________ २६२ वर्द्धमानचरितम् सलिलराशि वियत्कन का चला शिशिर रश्मिधरा रजनीकराः । अध धैर्य महत्त्वसमुन्नतिद्युति धृतिप्रशमैर्भवता जिताः ॥६५ हृदयतो भवता सुनिराकृतः शुचिसमाधिबलेन जिनेश यः । तमतिराजति रागमिवोद्वमत्किसलयद्युति पाद युगं तव ॥६६ तव निशम्य सुदिव्यरवं मु'दं समुपयान्ति जना जिन भाक्तिकाः । भवति किं न सुखाय शिखण्डिनां अभिनवाम्बुधरस्य महाध्वनिः ॥६७ बहत यो हृदयेन भवद्गुणान् प्रविमलान्दुरितं तमपोज्झति । निशि समग्रशशाङ्ककरान्वितः सुरपथस्तमसा किमु लिप्यते ॥ ६८ इदमनन्त चतुष्टयवैभवं न च परो लभते भवता विना । जगति दुग्धपयोधिरिवार्णवः किमु वहत्यपरोऽम्बु सुधामयम् ॥६९ विशदबोधमयं परमं सुखं तव जिनेश्वर पादसमाश्रिता । भजति भव्य सभाद्रतयान्विता कुमुदिनी कुमुदाधिपतेरिव ॥७० गुणविशेषविदः स्वसुखेच्छया जिन भवन्तमलं समुपासते । कुसुमितं सहकारमिवालिनो न हि भजन्त्यपकारिणमङ्गिनः ॥७१ है, अनुपम है, परम निर्वाण अथवा उत्कृष्ट सुख का कारण है, भव्य जीवों के द्वारा स्तुत है और उत्तम दो नयों से सहित है ऐसा आपका मत ही जगत् में सुशोभित हो रहा है ||६४|| हे स्वामिन् ! आपने धैर्य, महत्त्व, समुन्नति, कान्ति, धैर्य और प्रशम इन गुणों के द्वारा क्रम से समुद्र, आकाश, सुमेरु पर्वत, सूर्य, पृथिवी और चन्द्रमा को जीत लिया है || ६५ || हे जिनेश ! आपने निर्मल समाधि बल के द्वारा हृदय से जिसे सर्वथा तिरस्कृत कर दिया था, पल्लव के समान लाल लाल कान्ति को धारण करने वाला आपका चरणयुगल उस राग को उगलता हुआ-सा सुशोभित हो रहा है ||६६ || हे जिन ! भक्त लोग आपकी दिव्यध्वनि को सुन कर हर्ष को प्राप्त होते हैं सो ठीक ही है क्योंकि नूतन मेघ की महागर्जना क्या मयूरों के सुख के लिए नहीं होती ? || ६७ || जो मनुष्य हृदय से आपके निर्मल गुणों को धारण करता है पाप उसे छोड़ देता है सो ठीक ही है क्योंकि रात्रि में पूर्ण चन्द्रमा की किरणों से सहित आकाश क्या अन्धकार से लिप्त होता है ? अर्थात् नहीं होता ||६८|| आपके विना कोई दूसरा इस अनन्त चतुष्ट्यरूप वैभव को प्राप्त नहीं होता है सो ठीक ही है क्योंकि संसार में क्षीरसागर के समान क्या दूसरा समुद्र अमृतमय जल को धारण करता है ? अर्थात् नहीं करता है ||६९ || हे जिनेश्वर ! जिस प्रकार चन्द्रमा के पादसमाश्रिता - करों का आश्रय लेने वाली हरीभरी कुमुदिनी निर्मल विकासरूप सुख को प्राप्त होती है । उसी प्रकार आपके पादसमाश्रिता - चरणों का आश्रय लेने वाली दयार्द्र, भव्यसभा निर्मलज्ञानमय परम सुखको प्राप्त होती है ॥ ७० ॥ हे जिन ! जिस प्रकार भ्रमर फूले हुए आम्रवृक्ष की अच्छी तरह उपासना करते हैं उसी प्रकार गुणविशेष को जानने वाले लोग आत्मसुख की इच्छा से आपकी अच्छी तरह उपासना करते हैं सो ठीक ही है क्योंकि प्राणी अपकारी की उपासना नहीं करते हैं ॥ ७१ ॥ १. मुदा म० । २. समाश्रितः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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