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________________ २६% अष्टादशः सर्गः समुपलभ्य गिरं जिन तावकी हततृषो न भवन्ति न साधवः । नभसि वृष्टिमिवोरुरजोहरामभिनवाम्बुभृतो भुवि चातकाः ॥६१ सुगुणरत्नधिरप्यजडाशयो विमदनो प्युरु निकामसुखप्रदः। त्रिजगतामधिपोऽप्यपरिग्रहस्तव विरुद्धमिदं जिन चेष्टितम् ॥६२ अधिप सर्वजनप्रमदावहा नवसुधाविशदास्तिमिरच्छिदः। शशिकरा इव भान्ति भवद्गुणास्तव गुणा इव चन्द्रमसः कराः ॥६३ नवपदार्थयुतं विमलं महनिरुपमं परिनिर्वृति कारणम् । जगति भव्यनुतं सुनयद्वयं जिन तवैव मतं सुविराजते ॥६४ वाले उत्कृष्ट तेज को धारण करते हैं, आवरण से रहित हैं अर्थात् मेघ आदि आवरणों से कभी छिपते नहीं हैं, तथा अचलस्थिति-अविनाशी स्थिति से सहित हैं अतः आप अपूर्व सूर्य हैं। भावार्थ-सूर्य कुमुद को नहीं बढ़ाते किन्तु आप कुमुद को बढ़ाते हैं (पक्ष में पृथिवी के हर्ष को बढ़ाते हैं ) सूर्य लोक को संतप्त करने वाले उत्कृष्ट तेज को धारण करता है परन्तु आप लोक को संतप्त न करने वाले उत्कृष्ट तेज (पक्ष में लोकालादकारी प्रभाव ) को धारण करते हैं, सूर्य मेघ आदि के आवरण से छिप जाता है किन्तु आप किसी आवरण से छिपते नहीं हैं ( पक्ष में ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म से रहित हैं ) सूर्य की स्थिति चल है अर्थात् वह उदय और अस्त को प्राप्त होता है परन्तु आप अचल स्थिति हैं-अविनाशो स्थिति से सहित हैं इस प्रकार आप अपूर्व सूर्य हैं ॥६०। जिस प्रकार श्रावण मास में उरुरजोहरां-अत्यधिक धूलि को हरने वाली नवी वृष्टि को पाकर पृथिवी पर चातक तृषा-पिपासा से रहित हो जाते हैं उसी प्रकार हे जिनेन्द्र ! उरुरजोहरां-विशाल पाप को नष्ट करने वाली आपकी वाणो को पाकर साधु तृषा-तृष्णा से रहित हो जाते हैं ॥६१॥ हे जिनेन्द्र ! आप उत्तम-गुणों के रत्नाकर-सागर होकर भी अजडाशय—अजलाशय हैं-जल से रहित मध्यभाग से युक्त हैं ( परिहार पक्ष में अजडाशय-जडाशय नहीं हैं किन्तु प्रबुद्धहृदय हैं), आप विमदन-काम से रहित होकर भी अत्यधिक कामसुख को देने वाले हैं ( पक्ष में अत्यधिक अतीन्द्रिय सुख को देनेवाले हैं ) और तीनों जगत् के स्वामी होकर भी अपरिग्रह-परिग्रह से रहित हैं ( पक्ष में मूर्छा परिणाम से रहित-निर्ग्रन्थ हैं इस प्रकार आपकी यह चेष्टा विरुद्ध है ॥६२॥ हे प्रभो! आपके गुण चन्द्रमा को किरणों के समान और चन्द्रमा की किरणें आपके गुणों के समान सुशोभित हो रही हैं क्योंकि जिस प्रकार आपके गुण समस्त मनुष्यों को प्रमदावह-आनन्द उत्पन्न करने वाले हैं विषयदाह को दूर कर आत्मशान्ति को उत्पन्न करने वाले हैं उसी प्रकार चन्द्रमा की किरणें भी सब जीवों को प्रमदावह-प्रकृष्टमद को उत्पन्न करने वाले हैं अथवा दिन सम्बन्धी तपन को दूर कर शीतलता के आनन्द को देने वाले हैं। जिस प्रकार आपके गुण नवसुधाविशद-नूतन अमृत के समान स्पष्ट हैं उसी प्रकार चन्द्रमा की किरणें भो नवसुधाविशद्-नूतन चूना के समान श्वेत हैं और जिस प्रकार आपके गुण तिमिरच्छिदअज्ञानान्धकार को नष्ट करने वाले हैं उसी प्रकार चन्द्रमा की किरणें भी तिमिरच्छिद्-रात्रि सम्बन्धी अन्धकार को नष्ट करने वाली हैं ॥६३॥ हे जिन ! जो नौ पदार्थों से सहित है, महान् १. विमदनोऽपि निकाम म० । २. वहन्निरुपमं ब० । ३. तथैव मतं तव राजते ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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