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________________ २६० वर्धमानचरितम् विगतहानि दिवानिशमुज्ज्वलं विकचकजचयैरभिनन्दितम् । वहति वीर यशस्तव सन्ततं श्रियमनूनमपूर्वकलाभृतः ॥५६ त्रिभुवनं सततं करणक्रमावरण 'वरणजितमध्वग वीक्षसे । जिन यथास्थितममप्य परिभ्रमन्नहि विचिन्त्यगुणः परमेश्वरः ॥५७ सुतसुमारुत कम्पित मेरुणा मनसिजो मृदुपुष्पधनुर्धरः। अधरितो भवतेति किमद्भतं बलवता विषमोऽप्यभिभूयते ॥५८ जगति यस्य सुदुर्धरःमूजितं प्रथितधैर्यधनैरपि शासनम् । प्रकटदुःसहगुप्तिनिबन्धनं परमकारुणिकः स कथंभवान् ॥५९ अनुदिनं कुमुदं परिवर्धयन् परमलोकवितापि महो दघत् । विरहितावरणोऽप्यचलस्थितिजिनपते त्वमपूर्वतमोपहः ॥६० यद्यपि मेरो बुद्धि स्खलित हो रही है और आपको गुण-स्तुति अत्यन्त कठिन भी है तो भी हृदयस्थित बहुत भारी भक्ति के भारसे वह मेरे द्वारा कही जायगी सो ठीक ही है क्योंकि समीचीन अनुराग से सहित मनुष्य को लज्जा नहीं होती है ॥५५॥ हे वीर जिनेन्द्र ! जो हानि से रहित है, रात दिन उज्ज्वल रहता है, तथा खिले हुए कमलों के समूह से अभिनन्दित है ऐसा आपका बहुत भारी यश निरन्तर अपूर्व चन्द्रमा की लक्ष्मो को धारण करता है। भावार्थ-वर्तमान का चन्द्रमा घटता है, मात्र रात्रि में उज्ज्वल रहता है और उसके उदय में कमल निमोलित हो जाते हैं पर आपका यशरूपी चन्द्रमा कभी घटता नहीं है, दिन-रात उज्ज्वल रहता है तथा उसके अस्तित्व काल में कमल खिले रहते हैं इसलिए वह अपूर्वता को धारण करता है ॥ ५६ ॥ जो परिभ्रमण न करने पर भी अध्वग-पथिक है ऐसे हे वीर जिनेन्द्र ! आप तीनों लोकों को निरन्तर करण, क्रम और आवरण के बिना ही यथावस्थित रूप से देख रहे हैं सो ठोक ही है क्योंकि जो परमेश्वर है उसके गुणों का चिन्तवन नहीं किया जा सकता है। भावार्थ-संसार में पथिक वह कहलाता है जो परिभ्रमण करता है-यहाँ-वहाँ घूमता है पर आप परिभ्रमण के बिना ही पथिक हैं अर्थात् एक स्थान पर स्थित रहकर ही तीनों लोकों को जो जिस प्रकार है उसी प्रकार जानते हैं। संसार के अन्य पथिक किसी पदार्थ को देखते हैं तो इन्द्रियादिक करणों से देखते हैं, क्रम से देखते हैं और जब दूसरों को देखते हैं तब पहले देखे हुए पदार्थ पर आवरण पड़ जाता है परन्तु आपके देखने में करण क्रम और आवरण नहीं है इस तरह आपके गुणों का चिन्तवन करना मेरे लिए शक्य नहीं है ।।५७॥ छोंक की वायु से मेरु पर्वत को कम्पित कर देने वाले आपने कोमल पुष्परूपी धनुष को धारण करने वाले कामदेव को पराजित कर दिया इसमें आश्चर्य क्या है ? क्योंकि बलवान के द्वारा विषम भी तिरस्कृत होता ही है ।।५८॥ हे भगवन् ! जब कि संसार में आपका शासन प्रसिद्ध धैर्यरूप धन के धारकों के लिए भी अत्यन्त दुर्धर है, शक्तिसम्पन्न है तथा स्पष्ट और दुःसह गुप्ति-सुरक्षा के साधनों से युक्त है तब आप परम दयालु कैसे हो सकते हैं ? ॥५९॥ हे जिनेन्द्र ! क्योंकि आप प्रतिदिन कुमुद-चन्द्रविकासी कमल को बढ़ाते हैं, अलोकविनापि-लोक को संतप्त नहीं करने १. वरणहीनमिदं खलु वीक्ष्यते म० । २. मस्य म० ब०। ३. कम्पितिमेरुणा म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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