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________________ अष्टादशः सर्गः शार्दूलविक्रीडितम् मानस्तम्भविलोकनादवनतीभूतं शिरो बिभ्रता पृष्टस्तेन सुमेधसा स भगवानुद्दिश्य जीवस्थितिम् । तत्संशीतिमपाकरोज्जिनपतिः संभूतदिव्यध्वनि दक्षां पञ्चशतैर्द्वजातितनयैः शिष्यैः समं सोऽग्रहीत् ॥५१ स्रग्धरा पूर्वाह्णे दीक्षयामा प्रविमलमनसा लब्धयो येन लब्धा बुद्धयौषध्यक्षयोर्ज प्रथितरसतपोविक्रियाः सप्त सद्यः । तस्मिन्नेवाह्नि चक्रे जिनपतिवदन प्रोद्गतार्थप्रपञ्चां सोपाङ्गां द्वादशाङ्गश्रुतपदरचनां गौतमः सोऽपरा ॥५२ उपजाति: संप्राप्त सर्वातिशयं जिनेन्द्रमिन्द्रस्तदा तं विनयावनत्रः । प्रचक्रमे स्तोतुमिति स्तुतिज्ञः स्तुत्ये न केषां स्तवनाभिलाषः ॥५३ द्रुतविलम्बितम् अथ जिनेन्द्र तव स्तवसाद्विधौ मम फलस्पृहयापि समुद्यता । स्खलति वीक्ष्य मतिर्गुणगौरवं श्रमकरोऽभिमतोऽपि महाभरः ॥५४ जिन तथापि मया हृदय स्थितप्रचुरभक्तिभरादभिधास्यते । तब गुणस्तुतिरप्यतिदुष्करा सदनुरागयुतस्य न हि त्रया ॥५५ २५९ ॥ ५० ॥ मानस्तम्भ के देखने से नम्रीभूत शिर को धारण करने वाले उस बुद्धिमान् इन्द्रभूति ने ने जीव के सद्भाव को लक्ष्य कर भगवान् से पूछा और उत्पन्न हुई दिव्यध्वनि से सहित भगवान् उसके संशय को दूर कर दिया । उसी समय पाँचसो ब्राह्मणपुत्रों के साथ उस इन्द्रभूति ने जिन दीक्षा ग्रहण कर ली ।। ५१ ।। विशुद्धहृदय से जिसने पूर्वाह्नकाल में दीक्षा के साथ ही बुद्धि, औषधि, अक्षय, ऊर्जा, बल, प्रसिद्धरस, लय और विक्रिया से सात ऋद्धियाँ प्राप्त की थीं उस गौतम गणधर ने उसी दिन अपराह्न काल में, जिनेन्द्र भगवान् के मुख से जिसका अर्थविस्तार प्रकट हुआ था उस उपाङ्ग सहित द्वादशाङ्ग वाणी की पद- रचना की ।। ५२ ।। उसी समय विनय से नम्रीभूत तथा स्तुति को जानने वाला इन्द्र, जिन्होंने समस्त अतिशय प्राप्त कर लिये थे ऐसे उन वर्धमान जिनेन्द्र की इस प्रकार स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ सो ठीक ही है क्योंकि जो स्तुति करने योग्य है उसकी स्तुति करने को अभिलाषा किनकी नहीं होती ? अर्थात् सभी की होती है ॥ ५३ ॥ हे जिनेन्द्र ! फल की इच्छा से यद्यपि मेरी बुद्धि आपका स्तवन करने में उद्यत हुई है। फिर भी वह आपके गुण- गौरव - गुणों को श्रेष्ठता ( पक्ष में भारीपन ) देखकर स्खलित हो रही है सो ठीक ही है क्योंकि महान् भार इष्ट होने पर भी श्रम तो उत्पन्न करता ही है ||१४|| हे जिनराज ! १. श्रुतिज्ञः म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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