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________________ सप्तदशः सर्गः सूर्यांशवो निपतिता भुवनोदरेषु वातायन स्थित हरिन्मणिरश्मिलिप्ताः । तिर्यग्निवेशितनवायत वंशशङ्कामभ्यागतस्य जनयन्ति जनस्य यत्र ॥१६ रामाविभूषणमणिप्रकरांशुजाल विध्वंसितान्धतमसेषु गृहोदरेषु । व्यर्थीभवन्ति निशि यत्र परं प्रदीपा यद्यञ्जनं खलु वमन्ति न नेत्रपथ्यम् ॥ १७ दोषः स यत्र निशि सौधचयाग्रलग्नस्फीतेन्दुकान्तमणिकल्पितदुर्दिनेन । तिम्यन्ति यद्युवतयोऽर्द्धपथे स्मरार्ता चन्द्रोदये प्रियनिवासगृहं प्रयान्त्यः ॥१८ स्वच्छे कपोलफलके निशि कामिनीनां संलक्ष्यते शशधरः प्रतिमाच्छलेन । आदातुमागत इवाननभूरिशोभां यस्मिन्स्वकान्त्य विमलत्वतिरस्क्रियायै ॥१९ आनम्र राजकशिखारुणरत्न रश्मिबालातपप्रसरचुम्बितपादपद्मः । राजा तदात्ममतिविक्रमसाधितार्थः सिद्धार्थ इत्यभिहितः पुरमध्युवासं ॥२० यो ज्ञातिवंशममलेन्दुकरावदातः श्रीमान्सदा ध्वज इवायतिमानुदग्रम् । निर्व्याजमुत्सवपरम्परया प्रकाश मुत्थापितोद्धरितभूमिरलंचकार ॥२१ २३१ रोग से रहित है ) || १५ || जहाँ भवनों के मध्य में पड़ो हुई, तथा झरोखों में स्थित हरे मणियों किरणों से लिप्त सूर्य की किरणें आगन्तुक मनुष्य के लिये तिरछे रखे हुए नवीन लम्बे बांसो की शङ्का उत्पन्न करती हैं । भावार्थ - झरोखों में से महलों के भीतर जाने वाली सूर्य को किरणें झरोखों में संलग्न हरे मणियों की किरणों से लिप्त होने के कारण हरी हो जाती हैं इसलिये उन्हें देखकर नवीन अतिथि को ऐसी शङ्का होने लगती है कि क्या ये हरे-हरे नये बांस आड़े रक्खे हैं ॥ १६ ॥ स्त्रियों के आभूषणों में लगे हुए मणि समूह की किरणावली से जिनका गाढ़ अन्धकार नष्ट हो गया है ऐसे भवनों के मध्य भाग में रात्रि के समय जलने वाले दीपक सर्वथा व्यर्थ होते यदि वे नेत्रों के लिये हितकारी अञ्जन को नहीं उगलते । भावार्थ - दीपकों की सार्थकता अञ्जन के उगलने में ही थी अन्धकार के नष्ट करने में नहीं क्योंकि अन्धकार तो स्त्रियों के आभूषणों में लगे हुए मणियों की किरणों से ही नष्ट हो जाता था ॥ १७ ॥ जिस नगर में यही एक दोष है कि रात्रि के समय काम से पीड़ित युवतियां जब अपने पतियों के घर जाती थीं तो अर्ध मार्ग में चन्द्रोदय होने पर भवन समूह के अग्रभाग में संलग्न चन्द्रकान्त मणियों से निर्मित घोर वर्षा से वे भींग जाती हैं ॥ १८ ॥ जिस नगरी में रात्रि के समय स्त्रियों के स्वच्छ कपोल तल में प्रतिबिम्ब के बहाने चन्द्रमा मानों इसलिये आता fe वह अपनी कान्ति सम्बन्धी मलिनता को दूर करने के उद्देश्य से उनके मुख की शोभा को ग्रहण करने के लिये ही आता हो ।। १९ । सब ओर से नम्रीभूत राजाओं की चोटी में लगे हुए लालमणि की किरण रूपी बालातप— प्रातःकाल सम्बन्धी घाम के समूह से जिसके चरण कमल चुम्बित हो रहे थे तथा अपनी बुद्धि और पराक्रम से जिसने सब प्रयोजन सिद्ध कर लिये थे ऐसा सिद्धार्थं नाम का राजा उस नगर में निवास करता था || २० || जो चन्द्रमा की निर्मल किरणों के समान उज्ज्वल थी, लक्ष्मीमान् था, ध्वजा के समान आयति - सुन्दर भविष्य ( पक्ष में लम्बाई ) से सहित था तथा जिसने उद्धृत किया था - समस्त भूमि को समुन्नत किया था ऐसा वह राजा छलरहित १. नुदग्रः म० । पृथिवी को उठाकर उत्सवों की परम्परा
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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